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________________ ८२८] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् पासेहिं कूडजालेहि, मिओ वा अवसो अहं । वाहिओ बद्धरुद्दो अ, बहू चेव विवाइओ ॥६४॥ पाशैः कूटजालैः, मृग इवावशोऽहम् । वाहितो बद्धरुद्धो वा, बहुशश्चैव व्यापादितः ॥६४॥ पदार्थान्वयः-पासेहिं-पाश और कूडजालेहि-कूटजालों से मिओ वामृग की तरह अवसो-परवश हुआ अहं-मैं वाहिओ-छल से बद्ध-बाँधा गया अ-और रुद्धो-अवरोध किया गया-रोका गया च-पुनः एव-निश्चय ही बहू-बहुत वार . विवाइओ-विनाश को प्राप्त किया गया। ___ मूलार्थ-मृग की भाँति परवश हुआ मैं कूटपाशों से छलपूर्वक बाँधा गया और रोका गया, इस प्रकार निश्चय ही मुझे अनेक वार विनष्ट किया गया। टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि जिस प्रकार छलपूर्वक कूटजाल पाशों से मृग को पकड़कर बाँध लिया जाता है, उसी प्रकार परवंश हुए मुझको यमपुरुषों ने पकड़कर बाँध लिया, और इधर उधर भागने से रोक लिया। इतना ही नहीं किन्तु कूटपाशों से बाँधकर मुझे व्यापादित किया, अभिहनन किया; वह भी एक वार नहीं किन्तु अनेक वार । तात्पर्य यह है कि जैसे छलपूर्वक मृगादि जानवरों को पाश आदि के द्वारा बाँधकर व्यापादित किया जाता है, उसी प्रकार नरकगति में जाने वाले पापात्मा जीव को भी पाशादि के द्वारा बाँधकर यम के पुरुष व्यापादित करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि जो लोग वन के निरपराध अनाथ जीवों का शिकार करते हैं तथा कुतूहल के लिए जाल बिछाकर उनको पकड़ते और जिह्वा के वशीभूत होकर उनका वध करके उनके मांस से अपने मांस को पुष्ट करने का जघन्य प्रयत्न करते हैं, उनके लिए नरकगति में उक्त प्रकार के ही कष्ट उपस्थित रहते हैं। अतः मनुष्य-भव में आये हुए प्राणी को कुछ विवेक से काम लेना चाहिए तथा इन निरपराध मूक प्राणियों पर दया करके अपनी आत्मा को सद्गति का पात्र बनाना चाहिए। अब फिर कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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