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________________ ८१२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ एकोनविंशाध्ययनम् 1 ऐहिक विषयभोगों से होने वाली उपरामता का कारण हैं । मृगापुत्र कहते हैं कि मैंने अपने पूर्वजन्मों में इन शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को अनन्त वार सहन किया है । रोगादि के निमित्त से शरीर में उत्पन्न होने वाली वेदना शारीरिक और प्रिय पदार्थों के वियोग से जिसकी उत्पत्ति हो, उसे मानसिक वेदना कहते हैं । एवं लोक और राजविरुद्ध कार्यों के आचरण से दंडित होने पर नाना प्रकार दुःख और मृत्युजन्य भयों को भी मैंने पिछले जन्मों में अनेक वार सहन किया है । मृगापुत्र के कथन का आशय यह है कि जब मैंने असहनीय कष्टों को भी अनेक वार सहन किया है तो फिर संयमवृत्ति में उपस्थित होने वाले कष्ट मेरे लिए दुष्कर कैसे हो सकते हैं । तथा अनेक जन्मों के अनुभव से यही प्रतीत हुआ कि कामभोगादि विषयों के सेवन का फल सिवाय दुःख-यातना के और कुछ नहीं । इसलिए इनमें मेरी अब सर्वथा रुचि नहीं है । यहाँ पर 'असकृत्' शब्द भी अनन्त वार का ही सूचक है 1 अब फिर कहते हैं चाउरंते भयागरे 1 जरामरणकंतारे म सोढाणि भीमाई, जम्माई मरणाणि य ॥४७॥ " जरामरणकान्तारे चातुरन्ते भयाकरे । मया सोढानि भीमानि, जन्मानि " मरणानि च ॥४७॥ पदार्थान्वयः - जरा-जरा मरण - मृत्युरूप कंतारे - कान्तार में चाउरंतेचार गति रूप अवयव में भयागरे-भयों की खान में मए - मैंने सोढाणि - सहन किये भीमाई - भयंकर जम्माई - ई - जन्म य - और मरणाणि - मरण के दुःख । मूलार्थ - मैंने जरा-मरण रूप कान्तार में और चार गति रूप भयों की खान में जन्म-मरण रूप भयंकर दुःखों को सहन किया है । टीका - मृगापुत्र अपने माता-पिता से फिर कहते हैं कि जिस प्रकार प्रकार के व्याघ्र और सर्पादि दुष्ट जन्तुओं से आकीर्ण एक बड़ी भयानक अटवी— जंगल होता है, उसी प्रकार यह जरा और मरणरूप अटवी — कान्तार है, जिसकी देव, मनुष्य, तिर्यकू और नरक ये चार दिशाएँ हैं और जन्ममरणजन्य अनेक प्रकार
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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