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________________ ७६४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् निच्चकालप्पमत्तेणं , मुसावायविवजणं ।। भासियव्वं हियं सच्चं, निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥२७॥ नित्यकालाप्रमत्तेन , मृषावादविवर्जनम् । भाषितव्यं हितं सत्यं, नित्यायुक्तेन दुष्करम् ॥२७॥ - पदार्थान्वयः-निच्चकाल-सदैव अप्पमत्तेणं-अप्रमाद से मुसावायमृषावाद का विवजणं-त्याग करना भासियव्वं-भाषण करना हियं-हितकारी और सचं-सत्य निच-सदा आउत्तेण-उपयोग के साथ दुकरं-दुष्कर है। मूलार्थ हे पुत्र ! सदैव अप्रमत्तभाव से रहना, मृषावाद काझूठ का त्याग करना, हितकारी और सत्य वचन कहना तथा सदैव उपयोग के साथ बोलना यह व्रत भी दुष्कर है । अर्थात् इस व्रत का जीवन पर्यन्त यथावत् रूप से पालन करना भी अत्यन्त कठिन है। टीका-पूर्वगाथा में प्रथम व्रत के पालन को दुष्कर बतलाया गया है। अब इस दूसरी गाथा में दूसरे व्रत के आचरण को दुष्कर बतलाते हैं । मृगापुत्र के माता पिता कहते हैं कि हे पुत्र ! जीवनपर्यन्त अप्रमत्तभाव से झूठ को त्यागना, हितकारी और सत्यरूप भाषण करना और सदैव उपयोगपूर्वक बोलना, यह साधु का दूसरा व्रत है जो कि आचरण करने में अत्यन्त कठिन है। यहाँ पर अप्रमत्त शब्द निद्रा आदि प्रमादों के वशीभूत होकर झूठ बोलने के त्याग का सूचक है। तथा उपयोगपूर्वक बोलने की आज्ञा देने का तात्पर्य यह है कि उपयोगशून्य भाषण में विवेक नहीं रहता और विवेकविकल भाषण में सत्य का अंश बहुत कम होता है। कारण यह है कि विवेकशून्य भाषण में भाषण करने वाले को यह भी ज्ञान नहीं रहता कि उसने प्रथम क्या कहा था और अब क्या कह रहा है। अतः प्रमाद से युक्त और उपयोग से शून्य जो भी भाषण है, वह सत्य का पोषक होने के बदले उसका सर्वप्रकार से विघातक है । अतएव उक्त गाथा में दो वार नित्य शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि द्वितीय व्रत का पालन करने वाले को सदैव अप्रमत्त और उपयोग सहित होकर भाषण करना चाहिए, जो कि सामान्य जीवों के लिए बहुत ही कठिन है। अब तृतीय व्रत की दुष्करता का प्रतिपादन करते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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