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________________ ७८४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ एकोनविंशाध्ययनम् जन्मदुःखं जरादुःखं, रोगाश्च मरणानि च । अहो दुःखः खलु संसारः, यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः ॥१६॥ ___ पदार्थान्वयः-जम्मदुक्खं-जन्म का दुःख जरादुक्खं-बुढ़ापे का दुःख रोगा-रोग य-और मरणाणि-मरण का दुःख य-पुनः अहो आश्चर्य है हु-निश्चय ही दुक्खो-दुःखरूप संसारो-संसार जत्थ-जहाँ पर कीसंति-केश पाते हैं जंतुणो-जीव। ___मूलार्थ-जन्म का दुःख, जरा का दुःख, रोग और मृत्यु का दुःख, आचर्य है कि इस दुःखमय संसार में सचित होकर जीव नाना प्रकार के दुःख और क्लेशों को प्राप्त हो रहे हैं। टीका-मृगापुत्र कहते हैं कि हे माता ! देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। इस दुःखमय संसार में जन्म, जरा, रोग और मृत्यु से प्रसे हुए अथवा जकड़े हुए जीव अनेक प्रकार के क्लेश पा रहे हैं । तात्पर्य यह है कि किसी के पीछे एक दुःख पड़ जाता है तो उसको किसी प्रकार से भी शांति नहीं मिलती। परन्तु इस जीव के पीछे तो जन्म, जरा, रोग और मृत्यु तथा उपलक्षण से अनिष्टसंयोग और इष्टवियोगजन्य अनेक प्रकार के अति भयंकर दुःख लगे हुए हैं। ऐसी दशा में भी ये अज्ञानी जीव इस संसार में निमग्न हो रहे हैं किन्तु इससे छूटने के उपाय का उन्हें तनिक भी ख्याल नहीं, यह कितने आश्चर्य की बात है। इसके अतिरिक्त संसारनिमग्न प्राणी दुःखों के उपस्थित होने पर उनसे छूटने का जो उपाय करते हैं, वह भी दुःखों को कम करने के बदले उनको बढ़ाने वाला ही होता है । अर्थात् दुःखनिवृत्ति का जो सम्यक् उपाय है, उससे यह सर्वथा भिन्न अथच विपरीत है। जैसे प्रचंड अग्नि को शान्त करने के लिए जल के उपयोग के स्थान में तैल का उपयोग करना अग्नि को शान्त करने की अपेक्षा उसको बढ़ाने वाला होता है ठीक उसी प्रकार से विपरीत बुद्धि रखने वाले इन संसार-निमग्न जीवों की दशा है। अर्थात् हिंसा आदि पापकर्मों के आचरण से उत्पन्न होने वाले दुःखों की निवृत्ति के लिए दशविध यतिधर्म का सेवन करने के बदले हिंसा आदि अशुभ व्यवहार में ही प्रवृत्त हो रहे हैं। इनकी इस बालप्रवृत्ति पर मुझे अत्यन्त आश्चर्य होता है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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