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________________ ७७४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् wwwww अथ तत्रातिक्रामन्तं, पश्यति संयतश्रमणम् । तपोनियमसंयमधरं , शीलाढ्यं गुणाकरम् ॥५॥ .पदार्थान्वयः-अह-तदनन्तर तत्थ-वहाँ पर अइच्छन्तं-चलते हुए समणश्रमण संजयं-संयत को पासई-देखता है जो तव-तप नियम-नियम संजम-संयम के धरं-धरने वाला सीलड्डे-शीलयुक्त और गुणआगर-गुणों की खान है। मूलार्थ-तदनन्तर वहाँ पर उसने एक संयमशील श्रमण-साधुको देखा जो कि तप नियम और संयम को धारण करने वाला, शीलयुक्त और गुणों की खान था । टीका-जिस समय वह राजकुमार अपने निवास-भवन के गवाक्ष में खड़ा होकर नगर को देख रहा था उस समय उसने राजमार्ग में चलते हुए एक संयमशील साधु को देखा । वह साधु परम तपस्वी था अर्थात् द्वादशविध तप के आचरण करने वाला तथा अभिग्रहादि नियमों का पालक, सत्तरहभेदि संयम का धारक एवं शील-सम्पन्न और ज्ञानादि गुणों का आकर था। इसके अतिरिक्त सूत्र में जो श्रमण शब्द के साथ संयत विशेषण दिया है उसका तात्पर्य बौद्धादि भिक्षुओं की निवृत्ति से है क्योंकि सामान्यरूप से श्रमण शब्द का बौद्ध भिक्षुओं में भी व्यवहार होता है इसलिए श्रमण शब्द के साथ संयत विशेषण लगा दिया गया ताकि श्रमण शब्द से यहां पर जैन साधुओं का ही ग्रहण हो और उनके गुणों का भी प्रदर्शन हो सके। ____ इसके अनन्तर क्या हुआ ? अब इसी विषय में कहते हैंतं पेहई मियापुत्ते, दिवीए अणिमिसाइ उ । कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा ॥६॥ तं पश्यति मृगापुत्रः, दृष्ट्याऽऽनिमेषया तु। क्व मन्य ईदृशं रूपं, दृष्टपूर्व मया पुरा ॥६॥ ____ पदार्थान्वयः-तं-उस मुनि को पेहई-देखता है मियापुत्ते-मृगापुत्र अणिमिसाइ-अनिमेष दिट्ठीए-दृष्टि से उ-एवार्थक कहि-कहां मन्ने मैं जानता हूं एरिसं-इस प्रकार का रू-आकार दिट्ठपुव्वं-पूर्वदृष्ट है मए-मैंने पुरा-पूर्वजन्म में देखा है क्या ? . .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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