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________________ मियापुत्तीयं एगणवीसइमं अज्झयणं मृगापुत्रीयमकोनविंशतितममध्ययनम् गत अठारहवें अध्ययन में भोग और ऋद्धि के त्याग के विषय में कहा गया है। यद्यपि भोग और ऋद्धि के त्याग से श्रमणभाव की उत्पत्ति तो हो जाती है परन्तु साधुवृत्ति में जो शरीर का प्रतिक्रम नहीं करता वह और भी प्रशंसनीय होता है। अतः इस उन्नीसवें अध्ययन में शरीर का प्रतिक्रम न करने वाले एक महानुभाव मुनि की चर्या का वर्णन किया जाता है जिसकी आदिम गाथा इस प्रकार है यथासुग्गीवे नयरे रम्मे, काणणुजाणसोहिए । राया बलभद्दि त्ति, मिया तस्सग्गमाहिसी ॥१॥ सुग्रीवे नगरे रम्ये, काननोद्यानशोभिते । राजा बलभद्र इति, मृगा तस्याग्रमहिषी ॥१॥ पदार्थान्वयः-सुग्गीवे-सुग्रीवनामा नयरे-नगर रम्मे-रमणीय जो काणणवृद्धवृक्षों से उजाण-क्रीड़ा आरामों से सोहिए-सुशोभित—उसमें राया-राजा बलभद्द-बलभद्र त्ति-इस नाम वाला मिया-मृगा नाम वाली तस्स-उसकी अग्गमहिसी-पटराणी थी। मूलार्थ-अनेकविध कानन और उद्यानादि से सुशोभित सुग्रीवनामा नगर में बलभद्र नाम का राजा था और मृगा नाम की उसकी पटराणी थी।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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