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________________ ७३६ ] [ अष्टादशाध्ययनम् हो तथा अधिकारी भी उत्तम हो तो फिर उसको सफल होते देरी नहीं लगती। इसी लिए मुनि के उपदेश को सद्यः सफलता प्राप्त हुई । कारण कि इधर राजा भी स्वकृत अपराध की क्षमा-याचना में प्रवृत्त होने से अनुकम्पित हृदय था और उधर मुनि भी आदर्शजीवी थे । इसलिए मुनि ने जिस समय संसार की अस्थिरता और स्वार्थपरायणता का चित्र राजा के सामने खींचा, उसी समय वह राजा के स्वच्छ हृदय-पट पर अंकित हो गया अर्थात् संसार से वैराग्य हो गया । यहाँ 'महया' यह सुपुव्यत्यय से जानना । उत्तराध्ययनसूत्रम् इसके अनन्तर अर्थात् वैराग्य होने के बाद राजा ने क्या किया, अब इसी विषय में कहते हैं— संजओ चइउं रजं, निक्खन्तो जिणसासणे । गद्दभास्सि भगवओ, अणगारस्स अन्ति ॥ १९ ॥ " संजय त्यक्त्वा राज्यं निष्क्रान्तो जिनशासने । गर्दभालेर्भगवतः अनगारस्यान्तिके " पदार्थान्वयः —– संजओ - संजय राजा चइउं छोड़ करके निक्खन्तो- दीक्षित हुआ जिण सासणे - जिनशासन में गद्दभालिस गर्दभाली अणगारस्स - अनगार के अन्तिए - समीप में । ॥१९॥ रज्जं - राज्य को भगवओ - भगवान् मूलार्थ – संजय राजा राज्य को छोड़कर भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन - जिनधर्म में दीक्षित हो गया । टीका - मुनि के उपदेश को सुनकर संसार से विरक्त हुआ वह राजा गर्दभालि नाम के उस अनगार के पास जिनशासन में दीक्षित हो गया । यहाँ पर जिनशासन का नाम लेने से अर्थात् जैनदर्शन का उल्लेख करने से सुगतादि • अन्य दर्शनों की व्यावृत्ति हो जाती है क्योंकि बौद्धग्रन्थों में बहुत सी जैन-कथाओं का बुद्ध के नाम से संग्रह किया हुआ देखा जाता है। जैसे कि भृगु पुरोहित की कथा का बौद्ध जातकों में ज्यों का त्यों उल्लेख मिलता है । इसलिए उक्त गाथा में. 'निक्खतो जिणसासणे निष्क्रान्तो जिनशासने' यह कहा गया है । इस पर
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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