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________________ ७३२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [अष्टादशाध्ययनम् और रूप भी मनोहर होने के साथ २ अतिचंचल है । तात्पर्य कि इन पदार्थों की अनित्यता का विचार करते हुए विचारशील पुरुष को परलोक में काम आने वाले धर्मादि पदार्थों का ही संचय करना चाहिए और उन्हीं के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ____ अब मोहत्याग के विषय में कहते हैंदाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य ॥१४॥ दाराश्च सुताश्चैव, मित्राणि च तथा बान्धवाः। .. जीवन्तमनुजीवन्ति , मृतं नानुव्रजन्ति च ॥१४॥ पदार्थान्वयः-दाराणि-स्त्रियाँ य-और सुया-पुत्र च-पुनः एव-पादपूर्ति में मित्ता-मित्र य-और तह-तथा बन्धवा-बान्धव जीवंतं-जीते के साथ अणुजीवंतिजीते हैं—उसके उपार्जन किये हुए द्रव्य से जीते हैं य-और मयं मरे हुए के साथ नाणुव्वयंति-नहीं जाते। मूलार्थ-स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र और बान्धव सब जीते के साथ ही जीते हैं-उसके उपार्जन किये हुए धन से अपना जीवन निर्वाह करते हैं किन्तु मरे हुए के साथ नहीं जाते। टीका-इसमें राजा को मुनि ने जो उपदेश किया है, उसका आशय राजा के मोह को दूर करना है। मुनि का कथन है कि स्त्री, पुत्र, मित्र और बान्धवादि जितने भी जीव हैं, वे सब इसके जीते हुए के ही साथी हैं। मरने पर इनमें से कोई भी इसका साथ देने वाला नहीं । जीते हुए भी जब यह जीव उनका पालन-पोषण कर रहा है तभी तक उसके संगी हैं। निर्धन होने पर वे जीते जी भी इसका साथ छोड़ देते हैं। तब ऐसे सम्बन्धियों के लिए दिन-रात अनर्थ करना और उनको अपने जीवन का आधार समझना बुद्धिमान् पुरुष के लिए कहाँ तक उचित है, इसका स्वयं विचार करना चाहिए । यहाँ पर 'च' अप्यर्थक है और 'दाराणि' यह प्राकृत ', के कारण नपुंसक है। . . अब इनके परस्पर सम्बन्ध का दिग्दर्शन कराते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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