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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् [ अष्टादशाध्ययनम् टीका- जब राजा ने मुनि के समक्ष अपने हार्दिक भाव को प्रकट किया, तब समाधि से उठते ही मुनि ने राजा को अभयदान देते हुए कहा कि हे पार्थिव ! तू मुझसे किसी प्रकार का भय मत कर, और तू भी वन के इन जीवों को अभय वन के दान दे अर्थात् जिस प्रकार तू मुझसे भय मान रहा है, उसी प्रकार जीव भी तुझसे भयभीत हो रहे हैं । एवं जैसे मैंने तुझे अभयदान दिया है, वैसे ही वन के इन जीवों को तू भी अभयदान देकर निर्भय बना दे। क्योंकि यह संसार अनित्य है । इसकी कोई भी वस्तु नित्य नहीं । तब इस क्षणभंगुर जीवन के लिए तू क्यों इस हिंसा जैसे क्रूर कर्म में प्रवृत्त हो रहा है ? अर्थात् तेरे जैसे बुद्धिमान् राजा के लिए इस प्रकार की जघन्य प्रवृत्ति किसी प्रकार से भी उचित नहीं है । इस प्रकार हिंसक प्रवृत्ति के त्याग का उपदेश करने के अनन्तर अब राज्य के त्याग का उपदेश करते हैं ७३० ] 1 जया सव्वं परिच्चज, गन्तव्वमवसस्स ते अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसजसी ॥१२॥ यदा सर्व अनित्ये परित्यज्य, जीवलोके किं राज्ये ते । प्रसजसि ॥ १२ ॥ परिचज - छोड़कर अवसस्सअणिच्चे - अनित्य इस जीव - - आसक्त हो रहा है ? पसज्जसि - अ गन्तव्यमवशस्य " पदार्थान्वयः – जया - जब कि सव्वं - सब कुछ परवश हुए ते-तेरे को गन्तव्वं जाना है तो फिर लोगम्मि - जीवलोक में किं- क्यों तू रज्जम्मि- राज्य में मूलार्थ — जब कि परवश हुए तूने यह सब कुछ छोड़कर ही जाना है तो फिर इस अनित्य संसार में तू राज्य में क्यों आसक्त हो रहा है ? टीका — मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! यह बात अनुभवसिद्ध है कि यह संसार अनित्य है, इसकी कोई वस्तु भी स्थिर नहीं, यह सारा कोश और अन्त: पुर - आदि सब कुछ छोड़कर तूने परलोक में अवश्य जाना है, इसमें तुम्हारा कोई वश चलने का नहीं अर्थात् इस सारे राज्य-वैभव को छोड़कर तू न जावे, ऐसा भी नहीं हो सकता और जाते हुए किसी वस्तु को साथ ले जावे, यह भी नहीं हो सकता तो
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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