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________________ षोडशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [६७१ आचार्य कहते हैं निग्गन्थस्स-निर्ग्रन्थ को खलु - निश्चय ही इत्थीहिं- स्त्रियों के सर्द्धिसाथ सनसे जागयस्स - एक शय्या पर बैठे हुए बम्भयारिस्स - ब्रह्मचारी के बम्भचेरे-. ब्रह्मचर्य में संका-शंका वा अथवा कंखा - कांक्षा वा अथवा विइगिच्छा - सन्देह वा-अथवा समुप्पज्जेञ्जा - उत्पन्न होवे वा - अथवा भेदं - संयम का भेद वा - समुच्चयार्थ में लभेजा - प्राप्त करे उम्मायं - उन्माद को पाउगिजा - प्राप्त करे वा अथवा दीहकालियंदीर्घकालिक रोगायंकं–रोगातंक हवेज्जा - होवे वा - अथवा केवलिपन्नत्ताओ - केवलिप्रणी धम्माओ - धर्म से भंसेजा-भ्रष्ट होवे तम्हा-इसलिए खलु - निश्चय से नो-नहीं इत्थीहिंस्त्रियों के सर्द्धि-साथ सन्निजागए - एक पीठादि पर बैठा हुआ विहरेजा- विचरे । मूलार्थ - जो स्त्रियों के साथ एक पीठ - आसन पर बैठकर विचरने वाला न होवे, वह निर्ग्रन्थ है | वह कैसे ? इस पर आचार्य कहते हैं कि निश्चय ही निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी को स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठने से उसके ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा और विचिकित्सा के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, संयम का विनाश होता है, उन्माद की उत्पत्ति तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं केवलप्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है । इसलिए ब्रह्मचारी निग्रंथ स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठकर कभी न विचरे । टीका - इस गाथा में निर्ग्रन्थ साधु को स्त्री के साथ एक आसन पर बैठने का निषेध किया गया है अर्थात् जिस एक पीठ आदि आसन पर स्त्री बैठी हो, उसी पीठ पर साधु न बैठे । यदि वह बैठेगा तो उसके ब्रह्मचर्य में वही शंका आदि दोषों का आगमन होगा और संयमविनाश आदि की प्राप्ति होगी । इसलिए निर्मन्थ साधु को स्त्री के साथ एक आसन पर कभी बैठने का दुःसाहस नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त वृत्तिकार तो यहाँ तक कहते हैं कि - " उत्थितास्वपि हि तासु मुहूर्त तत्र नोपवेष्टव्यम्” अर्थात् स्त्री के उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक वहाँ साधु को न बैठना चाहिए । क्योंकि वहाँ पर तत्काल बैठने से उनकी स्मृति आदि दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है । इसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत में आरूढ़ होने वाली साध्वी स्त्री के लिए पुरुष के साथ एक आसन पर बैठने तथा उनके उठकर चले जाने पर भी वहाँ पर एक मुहूर्त से प्रथम बैठने का निषेध है । इस प्रकार के प्रतिबन्ध करने का तात्पर्य केवल ब्रह्मचर्य की रक्षा है । अब चतुर्थ समाधिस्थान के विषय में कहते हैं । यथा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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