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________________ षोडशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [६६७ निग्गन्थे-निर्ग्रन्थ है। तं-वह कह-कैसे इति चे-यदि ऐसे कहा जाय तो आयरियाहआचार्य कहते हैं निग्गन्थस्स-निर्ग्रन्थ को खलु-निश्चय से इत्थी-स्त्री पसु-पशु पण्डगनपुंसक संसत्ताई-संसक्त सयणासणाई-शयनासनादि का सेवमाणस्स-सेवन करते हुए बंभयारिस्स-ब्रह्मचारी के बम्भचेरे-ब्रह्मचर्य में संका-शंका वा-अथवा कंखाआकांक्षा वा-अथवा विइगिच्छा-सन्देह वा-अथवा समुप्पजेजा-उत्पन्न होवे मेयंभेद वा-अथवा लभेजा-प्राप्त होवे वा-समुच्चय अर्थ में है उम्मायं-उन्माद को पाउणिज्जा-प्राप्त होवे दीहकालियं वा-अथवा दीर्घकालिक रोगायंक-रोगातङ्क हवेजाहोवे केवलिपनत्ताओ-केवलिप्रणीत धम्माओ-धर्म से भंसेजा-भ्रष्ट होवे तम्हाइसलिए खलु-निश्चय से नो-नहीं इत्थी-स्त्री पसु-पशु पण्डग-पंडक नपुंसक से संसत्ताई-संसक्त सयणासणाई-शयन और आसन के सेवित्ता-सेवन करने वाला हवइ-होवे से-वह निग्गन्थे-निर्ग्रन्थ होता है। ___मूलार्थ-जैसे कि-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित शय्या और आसन आदि का जो सेवन करने वाला है, वह निर्ग्रन्थ है । अर्थात् स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन के सेवन करने वाला जो नहीं होता, वह निग्रन्थ है। यदि कहें कि ऐसा क्यों ? तो इस पर आचार्य कहते हैं-स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयनासन का सेवन करने वाले निग्रंथ ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा और सन्देह उत्पन्न हो जाता है, अथवा संयम का भेद और उन्माद की प्राप्ति हो जाती है, दीर्घकालिक रोग और आतंक का आक्रमण हो जाता है, और केवलि-प्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है । इसलिए स्त्री, पशु नपुंसक से अधिष्ठित शयनासनादि को जो सेवन नहीं करता, वही निर्ग्रन्थ है। टीका-ब्रह्मचर्य के इस प्रथम समाधिस्थान में यह बतलाया गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत के धारण करने वाला निम्रन्थ साधु, ऐसे स्थान में निवास न करे जहाँ पर स्त्री, पशु और नपुंसक का वास हो । कारण कि स्त्री, पशु और नपुंसक से अधिष्ठित स्थान में निवास करने से ब्रह्मचारी निग्रंथ के ब्रह्मचर्य में समाधि का रहना कठिन है। इसी विषय को शिष्य के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यदि ब्रह्मचारी 'स्त्री, पशु और नपुंसक से अधिष्ठित स्थान में रहने लगे तो उसके मन में शंका, आकांक्षा और विचिकित्सा संशय-के उत्पन्न होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। शंका
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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