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________________ इसने मुझे उस समय भी स्वीकार नहीं किया जब कि कौशल नरेश ने मेरे को इनके चरणों में स्वयं आकर उपस्थित किया था, अर्थात् ग्रहण करने के लिए दिया था। टीका - राजकुमारी भद्रा उस मुनि के गुणों का वर्णन करती हुई फिर कहती है कि यह मुनि बड़ा ही तपस्वी और पांचों इन्द्रियों को वश में रखकर तथा निरन्तर यत्न से रहने वाला है, क्योंकि जब मेरे पिता कौशल नरेश ने स्वयमेव प्रसन्नता पूर्वक मुझे इस मुनि को अर्पित किया था तब भी इस महर्षि ने मेरी मन से भी इच्छा नहीं की। इससे इस ऋषि के विषय त्याग और उत्तम संयम का भली-भांति पता लग जाता है। जिसने अनायास - प्राप्त मुझ जैसी स्त्री का भी सर्वथा त्याग कर दिया। उसके विलक्षण त्याग और निस्पृहता की जितनी भी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। सारांश यह है कि इस प्रकार के सर्वोत्तम भिक्षु का निरादर नहीं होना चाहिए, अपितु आप लोगों को इनका जितना भी सत्कार हो सके, उतना करना चाहिए । अब फिर इसी विषय में कहते हैं महाजसो एस महाणुभावो, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । मा एयं हीलेह अहीलणिज्जं, मा सव्वे तेएण भे निद्दहेज्जा ॥ २३ ॥ महायशा एष महानुभागः घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । मैनं हीलयताहीलनीयं, मा सर्वांस्तेजसा युष्मान् निर्धाक्षीत् ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः —–महाजसो –—–— महान् यश वाला, एस — यह मुनि, महाणुभावो - महाप्रभावशाली, घोरव्व-घोर व्रतों वाला, य― और, घोरपरक्कमो घोर पराक्रम वाला है, मामत, एयं — इसकी, ही लेह — हीलना करो, क्योंकि यह, अहीलणिज्जं — अहीलनीय है— हीनता के योग्य नहीं है, सव्वे - सब, भे—तुमको, तेएण - तेज से, मा निद्दहेज्जा – कहीं भस्म ही न कर देवे । मूलार्थ – यह मुनि महान् यशवाला, महाप्रभावशाली, घोर व्रतों के आचरण करने वाला तथा घोर पराक्रम रखने वाला है, अतः इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलना के योग्य नहीं है, कहीं ऐसा न हो कि यह अपने तपःसंचित तेज से तुम सबको भस्म कर डाले । टीका - भद्रा कहने लगी कि यह मुनि बड़ा यशस्वी और अचिन्त्य शक्ति को धारण करने वाला है तथा अहिंसा आदि पांच महाव्रतों— जो कि अति घोर हैं—–के पालन करने और तपश्चर्या में घोर पराक्रम करने वाला अति तेजस्वी है। इस ऋषि ने विषय कषायों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए संभव है कि इस ऋषि के जाज्वल्यमान तेज रूप अग्नि में आप सबको शलभ की भांति कहीं भस्म होने का अवसर न आ जाए, अतः इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलना के योग्य नहीं है, अपितु पूजा के योग्य है। आत्मा में अनन्त शक्तियां विद्यमान हैं । निग्रह और अनुग्रह की शक्ति उन्हीं में से एक है। यह शक्ति तपश्चर्या का एक विशिष्ट परिणाम है, परन्तु इसको उपयोग में श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 426 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं लाना
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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