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________________ राजमार्ग पर ही चलना उचित है। यह मार्ग मोक्ष का सीधा और निरुपद्रव मार्ग है। इस पर चलता हुआ प्राणी बिना किसी विघ्न-बाधा के सीधा मोक्ष मन्दिर में पहुंच जाता है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! तुम कण्टकाकीर्ण मार्ग का परित्याग करके उत्तम राजमार्ग का अनुसरण करते हुए अब निर्णयपूर्वक विशुद्ध सन्मार्ग पर चल रहे हो, अतः इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें क्षण भर का भी प्रमाद न करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि चार्वाकादि का कथन किया हुआ मार्ग मिथ्या होने से राग-द्वेषादि भाव-कंटकों से व्याप्त है। उस पर चलने से भव्य जीवों का कल्याण नहीं हो सकता और जो सम्यग्-दर्शनादि का सन्मार्ग है वह निष्कण्टक और सर्वथा सरल है, अतः उस पर चलने से एक न एक दिन अभीष्ट स्थान की प्राप्ति अवश्यंभावी है। स्वीकार किए हुए संयम-मार्ग का परित्याग केवल पश्चात्ताप का कारण होता है, अब इस विषय का वर्णन करते हैं अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३३ ॥ अबलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषममवगाह्य | पश्चात्पश्चादनुतापकः, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ३३॥ पदार्थान्वयः—अबले—निर्बल, · जह—जैसे, भारवाहए—भारवाहक, भार उठाने वाला, मग्गे—मार्ग, विसमेऽवगाहिया-विषम ग्रहण करके फिर भार को फेंककर, पच्छा—पीछे, पच्छाणुतावए-पश्चात्ताप करने वाला होता है, मा—इस प्रकार तू मत हो, समय-समय मात्र का भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। मूलार्थ-जैसे विषम मार्ग में गया हुआ निर्बल भार-वाहक भार को फैंककर पीछे से पश्चात्ताप करने लगता है, उसी प्रकार हे गौतम! तू मत हो, अतः इस विषय में समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। - टीका-इस गाथा में भार-वाहक के दृष्टान्त से एक बड़े ही उत्तम और शिक्षा-प्रद विषय का दिग्दर्शन कराया गया है। कोई निर्बल पुरुष किसी स्थान से मन-इच्छित सुवर्णादि पदार्थों के भार को लेकर अपने नगर की ओर चल पड़ा, परन्तु उसने जिस मार्ग का अनुसरण किया, वह मार्ग कण्टकों और कंकरों आदि से युक्त था। मार्ग की विकटता के कारण सिर पर उठाए हुए भार से श्रान्त होकर वह मन में विचार करने लगा कि मैं इस भार को यहां पर फैंक दूं तो ठीक होगा। यह विचार कर उसने उस भार को वहीं पर गिरा दिया और खाली हाथ अपने घर पहुंच गया । पीछे जब उसको धन की आवश्यकता पड़ी तो उसने मार्ग में फैंके हुए उन बहुमूल्य पदार्थों का स्मरण करके बहुत पश्चात्ताप किया और अपनी मूर्खता के लिए. अपने आपको बार-बार धिक्कारने ___ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 373 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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