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________________ पदार्थान्वयः–आउक्कायं - जल- काय में, अइगओ — गया हुआ, उक्कोसं —— उत्कृष्टता से, जीवो — जीव, संवसे—रहे तो, संखाईयं— संख्यातीत, कालं - कालपर्यन्त रहता है, उ — (वितर्क में ) गोयम — हे गौतम! समयं — समय मात्र का भी, मा पमायए — प्रमाद मत करो । मूलार्थ - अप्काय में गया हुआ जीव उत्कृष्टता से वहां रहे तो असंख्यात काल - पर्यन्त रह सकता है, इसलिए हे गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। टीका - इस गाथा में यह भाव दिखाया गया है कि यदि आत्मा जल-काय में चला गया और उसी में जन्म-मरण करने लग गया तो उत्कृष्टता से असंख्यात काल तक उसी काय में रह सकता है। उक्त गाथा में आए हुए संख्यातीत शब्द का अर्थ असंख्यात काल - पर्यन्त है । तात्पर्य यह है कि जो संख्या से रहित है वह असंख्य वा अनन्त ही होता है, परन्तु यहां पर संख्या से रहित का अर्थ असंख्यात ही लिया गया है। पन्नवणासूत्र के अठारहवें पद में लिखा है 'पुढविकाइए णं भंते कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयम ! जहण्णेणं अन्तो मुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उवसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेज्जा लोगा एवं आउ, तेउवाउकाइयावि । ' अर्थात् गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि भगवन्! पृथ्वी - काय में, अप्काय में, तेज और वायुकाय जीव कब तक रह सकता है ? भगवान् उत्तर में कहते हैं कि हे गौतम! कम से कम अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल प्रमाण, अर्थात् काल से असंख्यात् उत्सर्पिणी- अवसर्पिणिओं के समय प्रमाण और क्षेत्र से यावन्मात्र असंख्यात लोक के आकांश प्रदेश हैं तावन्मात्र उक्त चारों स्थावरों में जीव रह सकता है। अतएव यदि जीव अप्काय में चला गया और उसी में जन्म-मरण करने लग गया तो असंख्यात काल पर्यन्त उसी में जन्म-मरण करता रहता है, इसलिए इस मनुष्य जन्म को प्राप्त करके धर्माचरण के लिए पुरुषार्थ करते रहना चाहिए और समय मात्र भी प्रमाद करना योग्य नहीं है। P अब तेजस्काय की स्थिति का वर्णन करते हैं— तेउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ७ ॥ तेजस्कायमतिगतः, उत्कर्षं जीवस्तु संवसेत् । कालं संख्यातीतं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः—–तेउक्कायं—– तेजस्काय में, अइगओ — प्राप्त हुआ, उक्कोसं— उत्कृष्टता से, उ–तो, जीवो—जीव, संवसे – रहता है, संखाईयं — संख्यातीत, कालं— काल तक, समयं - - - समयमात्र का भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए - प्रमाद मत करो । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 352 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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