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________________ चन्दन के लेप से यह ज्वर शान्त होगा। रानियां तत्क्षण ही गोशीर्षचन्दन घिसने लगीं । घिसते समय रानियों के हाथों के कङ्कण शब्दायमान हो रहे थे । आकुलता के कारण राजा को वह शब्द न रुचा और रानियों से कहा कि इस शब्द को बन्द करो । आज्ञानुसार रानियों ने सौभाग्य का चिह्न जानकर एक-एक कङ्कण तो पहने रखा और शेष उतार दिए। शब्द होना बन्द हो गया । तब राजा ने पूछा यह शब्द कैसे बन्द हो गया ? रानियां बोलीं- 'महाराज अब हाथों में एक-एक ही कङ्कण है, शब्द कैसे हो?' इस घटना से राजा के हृदय में वैराग्य भाव का उदय हुआ और वह विचारने लगा कि वास्तव में देखा जाए तो जीव एकाकी ही सुखी है। समूह में तो इन कङ्कणों के शब्द की तरह मनुष्य कोलाहल - ग्रस्त आकुलता की अवस्था में ही पड़ा रहता है। क्या ही अच्छा हो कि मैं भी दीक्षा धारण कर एकाकी होकर विचरूं ? इसी विचार - मग्न अवस्था में वे निद्रागत हुए और स्वप्नावस्था में सातवें स्वर्ग का दृश्य देखने लगे। वे निद्रा से मुक्त हुए तो जाति-स्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्व जन्म को हस्तामलकवत् देखने लग गए। जिसका वर्णन अब सूत्रकार आगामी गाथाओं के द्वारा कर रहे हैं— चइऊण देवलोगाओ, उववन्नो माणुसम्मि लोगम्मि । उवसन्तमोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ॥ १ ॥ च्युत्वा देवलोकात्, उपपन्नो मानुषे लोके । उपशान्तमोहनीयः; स्मरति पौराणिकीं जातिम् || १ || पदार्थान्वयः – चइऊण — च्यव करके, देवलोगाओ — देवलोक से उववन्नो — उत्पन्न हुआ, माणुसम्मि—– मनुष्य, लोगम्मि — लोक में, उवसन्तमोहणिज्जो — उपशान्त हो गया है मोहनीय कर्म जिसका, पोराणियं - पुरानी, जाई – जाति को, सरई – स्मरण करता है । मूलार्थ - वह राजा नमि देवलोक से च्यव कर इस मनुष्य - लोक में उत्पन्न हुआ और मोहनीयकर्म के उपशान्त होने से उसको अपने पिछले जन्म का स्मरण हो उठा, अर्थात् वह अपने पूर्व जन्म का स्मरण करने लगा। टीका - इस गाथा में इस विषय पर प्रकाश डाला गया है कि जिस जीव का दर्शन मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है, वह जीव अपने पिछले जन्मों को ज्ञान के द्वारा देख लेता है। जिस जीव के जीवन में दर्शन-मोहनीय कर्म का उदय होता है, वह पिछले जन्म को तो क्या इस जन्म के किए हुए कार्यों को भी भूल जाता है । . साथ में सूत्रकर्त्ता ने यह भी बता दिया है कि उच्चकोटि के देवता अपने स्वर्ग स्थान से च्यव कर मनुष्य योनि में ही आते हैं, पशुयोनि में नहीं । इसके अतिरिक्त ‘पौराणिकीं जातिं' का उल्लेख करने से नास्तिकता के विचारों का भी परिहार कर दिया गया है, क्योंकि इस कथन से जीव का संसार - परिभ्रमण और जन्मान्तर-ग्रहण स्पष्ट रूप से णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 303 /
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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