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________________ जाता है और यह आत्मा शुद्ध हो जाती है। अब फिर इसी विषय का अधिक स्पष्ट और ग्रहणीय रूप में वर्णन करते हैं जगनिस्सिएहिं भूएहिं, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ॥ १०॥ जगन्निश्रितेषु भूतेषु, सनामषु स्थावरेषु च । न तेषु दण्डमारभेत, मनसा वचसा कायेन चैव ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-जग-लोक में, निस्सिएहिं—आश्रित, भूएहिं—जीवों में, तसनामेहि-त्रसों में, च-और, थावरेहिं—स्थावरों में, तेसिं—उन में, दंडं—दंड का, नो आरभे—आरम्भ न करे, उन्हें दण्ड न देवे, मणसा-मन से, वयसा वचन से, कायसा—काया से, च–अर्थात् सब अंगों से, एवं—अवधारणार्थक है। ___ मूलार्थ लोकाश्रित जो त्रस और स्थावर जीव हैं उनको मन, वचन और काया से तथा अन्य किसी भी प्रकार से दंड न दे। टीका इस लोक में जितने भी जीव हैं वे सब त्रस और स्थावर इन दो राशियों में विभक्त हैं, इनमें जो चलते-फिरते जीव हैं उनकी त्रस संज्ञा है और जो स्थिर रहने वाले पृथ्वी आदि पांच जीव हैं उनको स्थावर कहते हैं। त्रस नाम-कर्म के उदय से जिन जीवों को त्रस रूप की प्राप्ति होती है वे त्रस कहे जाते हैं और स्थावर नाम कर्म के उदय से स्थावरता को प्राप्त होने वाले जीवों को स्थावर कहा जाता है। इस प्रकार लोक में रहने वाले त्रस और स्थावर सभी जीवों को मन, वचन और काया से विचारशील पुरुष कभी दंड न दे। तात्पर्य यह है कि अपने आत्म-परिणामों को किसी भी जीव के प्रतिकूल धारण न करे। इस प्रकार का आचरण करने पर ही यह जीव समिति वाला माना जा सकता है। इसके प्रतिकूल अर्थात् जीवों के प्रति अशुभ भाव रखने वाला कभी समिति-युक्त नहीं हो सकता। ‘चकार' से यावन्मात्र हिंसा के भंग अर्थात् प्रकार हैं, उन सबकी निवृत्ति अभीष्ट है और मूल गाथा में सप्तमी के स्थान में जो तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है वह प्राकृत नियम के अनुसार समझना चाहिए। इस प्रकार सूत्रकर्ता ने अथवा यूं कहिए कि कपिल केवली ने मूल गुणों का वर्णन करके दिखा दिया। अब वे उत्तर गुणों का वर्णन करते हैं। उनमें प्रथम एषणा-समिति के विषय में कहते हैं सुद्धेसणाओ नच्चाणं, तत्थ ठविज्ज भिक्खू अप्पाणं । . जायाए घासमेसेज्जा, रसगिद्धे न सिया भिक्खाए ॥११॥ शु?षणाः ज्ञात्वा, तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम् । यात्रायै ग्रासमेषयेत् , रसगृद्धो न स्याद् भिक्षादः ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः–सुद्धसणाओ-शुद्ध एषणाओं को, नच्चाणं-जान करके, तत्थ उनमें, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 290 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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