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________________ अल्पाहार पर निर्भर है, अतः अप्रमत्त संयमी का आहार भी शुद्ध होने के साथ-साथ अतिस्वल्प मात्रा में ही होना चाहिए। यद्यपि भारण्ड नाम वाला पक्षी आजकल प्रसिद्ध नहीं है और न ही वह आजकल कहीं पर देखने में आता है, परन्तु वृत्तिकार उसका वर्णन करते हुए इस प्रकार लिखते हैं—“यथाह्येतेऽन्तर्वर्तिसाधारण-चरणा एकोदराः पृथग्ग्रीवा अन्योन्यफलभक्षिणश्च प्रमादपरा विनश्यन्ति तथा यतिरपि प्रमाद्यन् संयमाद् भ्रश्यति'-अर्थात् भारण्ड नाम के पक्षी का और सब आकार तो अन्य पक्षियों की भान्ति ही होता है, परन्तु उसकी ग्रीवा-गर्दन दो होती हैं। वह सदा एक ही मुख से खाता है और यदि कभी प्रमादवश वह दोनों मुखों से खाने लग जाता है तो मर जाता है। इसी प्रकार प्रमाद के वशीभूत हुआ साधु भी अपने संयम से पतित हो जाता है, अतः प्रमादी जनों के संसर्ग से साधु को सदा ही अलग रहने का यत्न करना चाहिए। इसी अभिप्राय से गुरुजन कहते हैं कि "हे शिष्य! यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो भारण्ड पक्षी की तरह कभी भी प्रमाद का सेवन न करता हुआ सदा अप्रमत्त होकर ही विचरण कर और काल की भयंकरता के सामने इस दुर्बल शरीर की परिस्थिति का ध्यान करता हुआ धर्मानुष्ठान में कभी प्रमाद न कर, यही सच्चा श्रेयस्कर मार्ग है। ... 'चर' यह मध्यम पुरुष का एक वचन है। इसका ‘चर विहितानुष्ठानमासेवस्व' ऐसा अर्थ जानना चाहिए। 'चरे' पाठ में तो 'चरेत्'--आचरण करे—यह अर्थ स्पष्ट ही है। अब उक्त विषय को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । ... लाभंतरे जीवियं बूहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ ७ ॥ चरेत्पदानि परिशंकमानः, यत्किञ्चित्पाशमिह मन्यमानः । .. लाभान्तरे जीवितं बृंहयित्वा, पश्चात्परिज्ञाय मलापध्वंसी || ७ || पदार्थान्वयः-चरे–विचरे, पयाई–संयमरूप पदों के दोष लगने से, परिसंकमाणो— शंकाशील बना हुआ, जं—जो, किंचि–किंचिन्मात्र दोष है उसको, इह—संसार में, पासं—पाश रूप, मण्णमाणो—मानता हुआ, लाभतरे—जब तक इस शरीर से लाभ हो सकता है तब तक, जीवियं—जीवन को, बूहइत्ता वृद्धि करके, पच्छा—पीछे, परिन्नाय—परिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यान—परिज्ञा से प्रत्याख्यान कर, मलावधंसी—कर्मरूप मल को दूर करने वाला हो अर्थात् अनशन व्रत धारण करे। मूलार्थ—संयम-पदों में दोष लगने के भय से परिशंकित हुआ साधक लगे हुए यत्किंचित् दोष को भी संसार में पाशरूप मानता हुआ इस शरीर से जब तक ज्ञानादि का लाभ हो सकता है तब तक इसकी वृद्धि करता हुआ—इसका पोषण करता हुआ संसार में विचरण करे, इसके अनन्तर ज्ञान के श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 187 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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