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________________ तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयुक्षये च्युताः । उपयान्ति मानुषीं योनिं स दशांगोऽभिजायते ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः—–तत्थ—वहां, जहाठाणं — यथास्थान, ठिच्चा — स्थिति करके, जक्खा —यक्ष – देव आउक्खए —– आयु के क्षय होने पर, चुया - च्यव कर, माणुसिं जोणि- मनुष्य योनि को, उवेंति— प्राप्त होते हैं, सेदसंगेऽभिजायए -- वे दश अंगों के सहित उत्पन्न होते हैं । मूलार्थ—वे देव उन देवलोकों में यथास्थान ठहरकर आयु के क्षय होने के बाद वहां से च्यवन कर मनुष्य की योनि में आते हैं और उनको यहां पर मनुष्योचित सांसारिक काम-भोगों के दश अंगों की प्राप्ति होती है । टीका-तप-संयमादि पुण्यकर्मों के अनुष्ठान से देवगति को प्राप्त हुए जीव स्वर्गादि लोकों में अपने पुण्य के तारतम्य के अनुसार दिव्य सुखों को भोगकर जब आयु के समाप्त होने पर वे वहां से च्यवते हैं, तब उनका जन्म मनुष्य योनि में ही होता है, अर्थात् शेष रहे हुए कर्मों के फल को भोगने के लिए वे स्वर्ग से च्यव कर यहां मनुष्यलोक में आते हैं और यहां पर भी उनको दश अंगों की प्राप्ति हो जाती है, अर्थात् सांसारिक सुख भोगने के जो मुख्य दश अंग माने जाते हैं, उनको वे सब यहां पर मिल जाते हैं जिससे कि वे अन्य साधारण संसारी जीवों की अपेक्षा यहां पर भी अधिक सुखी, अधिक ऐश्वर्यशाली और अधिक प्रभाव रखने वाले होते हैं। यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि स्वर्ग से आने वाले जीवों के लिए जो दशाङ्ग प्राप्ति का उल्लेख किया गया है वह उत्सर्ग मार्ग है। अपवाद मार्ग से तो नौ और इससे भी न्यून हो जाते हैं, क्योंकि इनकी प्राप्ति का आधार शेष रहे हुए कर्मों की इयत्ता पर निर्भर है। अगर शेष कर्म अधिक हैं तो उनके अनुसार अधिक साधनों की प्राप्ति होगी और यदि वे न्यून हैं तो. दश में से कम साधन मिलेंगे। तात्पर्य यह है कि जितने अंशों में कर्म शेष होंगे उतने ही अंशों में उन्हीं के अनुसार सामग्री की प्राप्ति होगी। इसी अभिप्राय से मूलगाथा में 'अभिजाए' यह एक वचनान्त क्रिया दी गई है। यहां पर एक बात और स्मरण रखने के योग्य है, वह यह कि देवों की इतनी बड़ी आयु और इतनी बड़ी विभूति होती है फिर भी उसका अन्त हो जाता है और उनको फिर मनुष्य योनि में जन्म धारण करके अपने अभीष्ट को सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ता है। इससे सिद्ध हुआ कि मनुष् जन्म के समान दूसरा कोई जन्म नहीं और मनुष्ययोनि के बिना और किसी योनि से भी मोक्ष की प्राप्ति 'नहीं हो सकती। इसलिए देवों को भी स्वर्ग से च्यव कर इसी मनुष्य योनि में जन्म धारण करना पड़ता है । इससे प्रमाणित हुआ कि मनुष्य जन्म एक बड़ा ही दुर्लभ रत्न है। इसको प्राप्त करके भी जो जीव इसके मूल्य को नहीं समझते वे वास्तव में पशु हैं। इसलिए विचारशील पुरुषों को उचित है कि देव-दुर्लभ इस मानव शरीर को प्राप्त करके, वे अपने आप को सांसारिक विषय-वासनाओं में ही लिप्त न रखें, किन्तु धर्म के आराधन में तत्पर रहते हुए आत्म-कल्याण को अपने जीवन का सबसे प्रमुख श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 174 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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