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________________ इस समस्त कथन का सारांश यह है कि मुनि यदि अल्प-प्रज्ञ हो तो उसे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए और यदि वह प्रज्ञावान हो तो उसे भी किसी प्रकार का गर्व नहीं करना चाहिए, किन्तु अज्ञान और ज्ञान की इन दोनों ही दशाओं को अपने पूर्व-कृत कर्मों का विपाक समझकर शान्ति पूर्वक अपने आत्म-चिन्तन में ही निमग्न रहने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा चिन्तन करने पर ही प्रज्ञा-परीषह पर विजय प्राप्त हो सकती है। . यहां पर 'अथ' शब्द आनन्तर्य अथवा प्रश्न के अर्थ में आया है, एवं 'उइज्जंति' में तिङ् व्यत्यय होने से उसका ‘उदेष्यन्ति' यही अर्थ शस्त्र-सम्मत है। (२१) अज्ञान-परीषह प्रज्ञा–ज्ञान का विपक्षी अज्ञान है, इसलिए प्रज्ञा-परीषह के बाद अब इक्कीसवें अज्ञान-परीषह का वर्णन किया जाता है निरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाणपावगं |॥ ४२ ॥ ____निरर्थकमस्मि विरतः, मैथुनात्सुसंवृतः । यः साक्षान्नाभिजानामि, धर्मं कल्याणपापकम् ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः–निरट्ठगम्मि- मैं निरर्थक ही, विरओ-विरत हुआ हूं, मेहुणाओ मैथुन से, तथा, सुसंवुडो-इन्द्रियों और मन के दमन से, जो–जो, सक्खं—प्रत्यक्ष, नाभिजाणामि मैं नहीं जान पाया हूं, धम्मं कल्लाणपावगं—धर्म-कल्याण और पाप को । ___ मूलार्थ_मैंने व्यर्थ ही मैथुनादि से निवृत्ति और इन्द्रियों के दमन का प्रयल किया है, जबकि मैं अभी तक प्रत्यक्ष रूप से धर्म-कल्याण अथवा पाप को नहीं जान पाया हूं। ___टीका—इस गाथा में इस बात की शिक्षा दी गई है कि अल्पज्ञ कोई भी साधु अज्ञान-परीषह के वशीभूत होकर इस प्रकार का चिन्तन न करे कि मैंने तो इस त्यागवृत्ति का निरर्थक ही ढोंग रच रखा है और व्यर्थ ही मैथुनादि विषयों से मैं उपरत हुआ हूं तथा मेरे द्वारा इन्द्रियों और मन का दमन करना भी व्यर्थ ही है, क्योंकि मुझे आज तक इस बात का प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान नहीं हुआ कि धर्म क्या वस्तु है , कल्याण किसे कहते हैं, और पाप क्या पदार्थ है, इत्यादि । यदि धर्म के साक्षात्कार में और पुण्य तथा पाप की सच्ची परीक्षा हो जाने में इस निवृत्ति-मार्ग का अनुसरण ही कारण है तो इतने त्याग और संयम के पश्चात् तथा इतनी तपश्चर्या के पश्चात् भी मुझे इन धर्मादि पदार्थों का अवश्य साक्षात्कार हो जाना चाहिए था, परन्तु वह आज तक नहीं हुआ। इससे सिद्ध होता है कि अज्ञानता की निवृत्ति के लिए यह त्याग कुछ मूल्य नहीं रखता और इन्द्रिय-दमन तथा ब्रह्मचर्य का पालन भी अज्ञान-निवृत्ति और ज्ञान-प्राप्ति में किसी प्रकार की साक्षात् सहायता नहीं करते। अल्प-प्रज्ञ साधु का इस प्रकार का विचार, उसके अज्ञान-परीषह के वशीभूत होने का फल है, | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 150 । दुइअं परीसहज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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