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________________ टीका—इस गाथा में उष्ण-परीषह के उपस्थित होने पर साधु को आर्त्त-ध्यान करने का निषेध किया गया है। किसी उष्ण-भूमि शिला आदि के स्पर्श से अथवा शरीर के मल, स्वेद आदि या तृषा और उष्ण वायु-जन्य दाह से पीड़ित हुआ एवं ग्रीष्मादि के उष्ण परिताप से तर्जित हुआ साधु अपनी सुख-शान्ति के लिए चिन्ता न करे, अर्थात् मुझे कब शान्ति मिलेगी, इस समय उष्ण परिताप के कारण जो असह्य कष्ट हो रहा है वह कब शान्त होगा इत्यादि दीनतासूचक वचनों द्वारा उक्त परीषह के सहने में अपनी कायरता का परिचय न दे। इस गाथा का संक्षेप में इतना ही भावार्थ है कि जब कभी साधु को उष्णता-जन्य परिताप के कष्ट का सामना करना पड़ जाए तो वह उस परिताप से व्याकुल होने पर अपने मन में किसी प्रकार की आकलता न लाए. किन्त उस कष्ट को बड़े धैर्य से सहन करने का प्रयल करे। शान्ति-पूर्वक कष्ट सहन करने पर दो लाभ होते हैं—एक तो कष्ट की निवृत्ति हो जाती है और दूसरे कर्मों की निर्जरा भी होती है। इसलिए संयमशील साधु को गर्मी के परिताप में भी अपनी सहनशीलता को दृढ़तर बनाए रखना चाहिए। अब फिर इसी विषय में कहते हैं उण्हाहितत्तो मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ॥ ६ ॥ उष्णाभितप्तो मेधावी, स्नानं नापि प्रार्थयेत् । गात्रं नो परिसिंचेत्, न वीजयेच्चात्मानम् || ६ || पदार्थान्वयः–उण्हाहि—उष्णता से, तत्तो–तप्त-पीड़ित, मेहावी-बुद्धिमान, सिणाणं-स्नान की, वि—कभी भी, नो पत्थए—इच्छा न करे, गायं—शरीर को, नो परिसिंचेज्जा—जल के छींटों से सिंचन न करे, य—और, अप्पयं—अपने आपको, न वीएज्जा—पंखा भी न करे। मूलार्थ बुद्धिमान् साधु उष्णता के परिताप से संतप्त होने पर भी स्नान की इच्छा न करे और शरीर पर जल के छींटे भी न दे तथा अपने आपको पंखा भी न करे। टीका—इस गाथा में बढ़ी हुई उष्णता के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाले परिताप की निवृत्ति के जितने भी बाह्य साधन हैं, उन सब के उपयोग का साधु के लिए निषेध किया गया है। अत्यन्त गर्मी लगने पर भी उसकी निवृत्ति के लिए साधु स्नान न करे, शरीर पर जल के छींटे न दे और पंखे को जल से तर करके उससे हवा न करे तथा पंखे को यूं भी न झुलाए, किन्तु उपस्थित हुए गर्मी के इस कष्ट को समता-पूर्वक सहन करके ही पराजित करे। स्नान के दो भेद हैं, देश-स्नान और सर्व-स्नान । केवल हाथ-मुंह आदि धोकर बस कर देने का नाम देश-स्नान है और सिर से लेकर पांव तक शरीर को धोना सर्व-स्नान कहलाता है। साधु के लिए दोनों प्रकार के स्नान त्याज्य हैं तथा जलबिन्दुओं का शरीर पर छींटना और पंखे से हवा करना, यह भी श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 118 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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