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________________ 40] [ जैन विद्या और विज्ञान । कहा है। इस सार्वभौम सत्य की नई व्याख्या करते हुए कहा है कि भगवान महावीर द्वारा सभी को समान समझने का अर्थ सभी के साथ मैत्री-भाव रखना है। मैत्री-भाव का सिद्धान्त ही आत्म-तुला का सिद्धान्त है। वे कहते हैं कि जो सब जीवों को अपने समान नहीं समझता वहां मैत्री केवल व्यावहारिक ही हो सकती है। मैत्री का विराट एवं वास्तविक सिद्धान्त, आत्म-तुला का सिद्धान्त है। इसमें सब जीवों के साथ मैत्री होती है, कोई भी प्राणी शेष नहीं बचता। अगर एक भी जीव के साथ अमैत्री का भाव है तो वह आध्यात्मिक मैत्री नहीं हो सकती। आध्यात्मिक मैत्री ही विश्व मैत्री हो सकती है जो आत्मतुला की भावना का प्रतिफल है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आत्म-तुला के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने हेतु, अध्यात्म और व्यवहार के भेद को समझाया है। . . अध्यात्म और व्यवहार आचार्य महाप्रज्ञ का स्पष्ट मंतव्य है कि अध्यात्म के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार और व्यवहार के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार भिन्न होता है। व्यवहार से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता। जो शरीरधारी है वह व्यवहार करता है। व्यवहार के बिना वह जी नहीं सकता, उनका जीवन चल नहीं सकता। किंतु दोनों का व्यवहार बहुत भिन्न होता है। आचारांग सूत्र का कथन है कि आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्यथा व्यवहार करना चाहिए। व्यवहार की भूमिका पर जीने वाला जैसे व्यवहार करता है वैसे व्यवहार अध्यात्म की भूमिका पर जीने वाले को नहीं करना चाहिए, किंतु उसे भिन्न प्रकार से व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा व्यवहार करना चाहिए। __ हम 'अन्यथा' शब्द को समझें। इसके तात्पर्य को समझें। व्यावहारिक व्यक्ति का व्यवहार क्रियात्मक नहीं होता, प्रतिक्रियात्मक होता है। वह सोचता है – उसने मेरे प्रति ऐसा व्यवहार किया तो मैं भी उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार करूँ। यह क्रियात्मक व्यवहार नहीं, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति में कर्तव्य की स्वतंत्र प्रेरणा नहीं होती और कर्तव्य का स्वतंत्र मूल्य भी नहीं होता। उसका कर्तव्य स्व-संकल्प से प्रेरित नहीं होता, वह होता है दूसरों से प्रेरित। . वर्तमान के आचार शास्त्रियों और दार्शनिकों ने आचार मीमांसा में इस प्रश्न पर बहुत चर्चा की है कि हमारे कर्तव्य की प्रेरणा और हमारे कर्तव्य. का स्वरूप क्या होना चाहिए ? प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने कहा - 'कर्तव्य के लिए कर्तव्य होना चाहिए, न दया के लिए, न अनुकंपा के लिए और न दूसरों का भला करने के लिए। ये सब नैतिक कर्म के हामी
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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