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________________ जैन विद्या और विज्ञान का सामान्य परिचय ] [ 25 (iii) विज्ञान का समाज शास्त्र - विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने अपने मस्तिष्क की उपज से एवं प्रयोग से इस जगत को जानने में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए। उनके फलस्वरूप तकनीक के स्तर पर विज्ञान ने अनेक यंत्रों का निर्माण किया। सिद्धान्त और तकनीक की ये दो धाराएं परस्पर विज्ञान जगत में प्रमुख रही हैं लेकिन अब तीसरी धारा की आवश्कता है जो मानवीय जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण के क्षेत्र से विकसित हो रही है। पर्यावरण की रक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया हैं कि विज्ञान नैतिक और सभ्य समाज की शर्तो को स्वीकार करें। इस क्षेत्र में जैनों की नैतिक परम्परा, जीवन के प्रति आदर की उच्चता बहुत उपयोगी हो सकती है। जैन ही एक ऐसा धर्म है जिसने पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, और वनस्पति में मनुष्य की भांति संवेदना को माना है। आत्मवाद का ऐसा सिद्धान्त अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। जैनों ने यह भी माना है कि सभी आत्माएं समान है और परस्पर में जीवन को सहारा देती है अतः किसी का जीवन नष्ट करने का अधिकार दूसरों को नहीं है। इस श्रेष्ठ सिद्धान्त ने पर्यावरण की सुरक्षा की है। हिंसा से विमुख जैन दृष्टि में, प्रकृति से प्रेम करने के सिद्धान्त को महत्त्व दिया है। जैनों का यह अहिंसा का सिद्धान्त सार्वभौम हैं। युग की आवश्यकता है कि इस कठिन समय में वैज्ञानिक और दार्शनिक . परस्पर में संवाद प्रारम्भ करे और यह विवाद भी समाप्त करे कि विज्ञान और धर्म में ध्रुवीय अन्तर है। आशा की जा सकती है कि इस इक्कीसवीं शताब्दी में अध्यात्म-विज्ञान की एकता, मानव समाज के लिए हितकारी सिद्ध होगी। . यह सही है कि भौतिक, यांत्रिक, विद्युत चुम्बकीय इस त्रिआयामी सृष्टि में चौथा आयाम अगर धर्म ग्रहण कर लेता है तो मानव विकास के लिये एक सन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। यह सम्भावना इसलिये बनी है कि वर्तमान के सैद्धान्तिक भौतिक शास्त्री भौतिक विज्ञान के माध्यम से चेतना ओर नैतिकता की समस्याओं के निदान में भी जुड़ गये है। इसके साथ यह भी आवश्यकता है कि आधुनिक विज्ञान भी नीति और संस्कृति को, विकास में महत्वपूर्ण स्थान दे, जिससे विज्ञान अपनी सीमाओं में मानव जाति की सेवा कर सके । धर्म, समाज और विज्ञान इन तीनो के समन्वय से एक नयी संस्कृति के उदय होने की आवश्यकता है। 000
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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