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________________ प्ररोचना] [9 में व्याख्यान देने गया हुआ था। वहां संस्थान की कुलपति श्रीमती सुधामही रघुनाथन भी एक व्याख्यान में उपस्थित थीं। उनका आग्रह रहा कि मुझे आचार्य महाप्रज्ञ के वैज्ञानिक साहित्य पर लेखन करना चाहिए। उसी दिन उन्होंने इस संबंध में एक औपचारिक पत्र भी मुझे भेज दिया। मेरी भावना को साकार होना था और मैंने यह विषय चुना “आचार्य महाप्रज्ञ का जैन विद्या और वैज्ञानिक तथ्यों के समन्वय में योगदान'। समणी मंगलप्रज्ञाजी ने मेरी योजना की चर्चा आचार्य महाप्रज्ञ से की। वहाँ की स्वीकृति के बाद जैन विश्व भारती संस्थान की कुलपति के पास योजना भेजी। समणी मंगलप्रज्ञा जी ने औपचारिकताएं पूर्ण करने में भी सहयोग किया उसका परिणाम है कि यह लेखन-यात्रा हो सकी है। मेरे अध्ययन की सीमाएं लेखन करने से पूर्व आचार्य महाप्रज्ञ की हिन्दी भाषा में प्रकाशित अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया। आगमों के संशोधन और सम्पादन में दी गई टिप्पणियां पढ़ी। जहां भी जैन विद्या और विज्ञान के समन्वय का लेखन हुआ, उसे संग्रहित करता गया। अध्ययन करते समय यह आभास होता गया कि वे एक असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न लेखक हैं। वे भारतीय चिंतन परम्परा के गंभीर ज्ञाता हैं और आधुनिक मनोविज्ञान तथा विज्ञान के चिंतन से भी परिचित हैं। आगम और दर्शन के विषयों का प्रतिपादन, बोधगम्य करने की दृष्टि से विज्ञान का उपयोग किया है। पाठकगण पाएंगे कि युग बोधकारी साहित्य में भाषा सरल है लेकिन दर्शन के साहित्य में दार्शनिक भाषा ही छाई रही है। आचार्य महाप्रज्ञ की पुस्तक 'संबोधि' के आशीर्वचन में गणाधिपति तुलसी ने लिखा है कि लेखक ने अपनी प्रतिपादन-पद्धति में समयानुसार कितना परिवर्तन कर लिया है, यह इनके पिछले और वर्तमान साहित्य को देखने से ही पता लग जाता है। 'संबोधि' में पद जहां सरल और रोचक बन पड़े हैं वहां उतनी ही सफलतापूर्वक गहराई में पैठे हैं। इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि 'मैं सरल संस्कृत लिखने का अभ्यासी नहीं हूं पर इसकी भाषा-सारल्य पर गणाधिपति ने साश्चर्य आशीर्वाद दिया, इसे मैं अपने जीवन की सफलता का प्रकाश-स्तम्भ मानता हूं।' प्रकाशित साहित्य ___ मूल साहित्य का अध्ययन करने के बाद आचार्य महाप्रज्ञ पर हिन्दी भाषा में पूर्व में प्रकाशित साहित्य का अवलोकन किया। ‘महाप्रज्ञ व्यक्तित्व और
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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