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________________ (xxiii) और शून्य का अति गहरा सम्बन्ध है। कोई इकाई जब अनन्त होने लगती है तो उससे जुड़ी दूसरी इकाई स्वतः शून्य हो जाती है। केवलज्ञानी का ज्ञान अनन्त होता है, इस अनन्त के कारण समय की इकाई शून्य हो जाती है अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान का अंतर नहीं रहता।" इसी प्रकार दिशा, काल, विश्वविज्ञान आदि विषयों की समपुष्टि में विज्ञान के प्रामाणिक तथ्यों की प्रस्तुति दर्शन के संदर्भ में करके निश्चित रूप से ही विद्वान लेखक ने श्लाघनीय कार्य किया है। प्रबुद्ध लेखक ने अनेक स्थलों पर अपने मौलिक विचारों की भी प्रस्तुति दी हैं। यद्यपि उन विचारों के साथ अन्य चिंतकों की सहमति-असहमति हो सकती है, किंतु डॉ. गेलड़ा ने उन विषयों को प्रस्तुत कर चिंतन के क्षेत्र को विस्तार दिया है। इस संदर्भ में 'स्याद्वाद' पर किया गया उनका विमर्श मननीय है। वे लिखते हैं - "कण और लहर के वैज्ञानिक उदाहरण की जब हम स्याद्वाद की दृष्टि से मीमांसा करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि गति करते समय दो स्थितियां बनती हैं -- » कण का अस्तिमाव होता है तो तरंग का नास्तिभाव विद्यमान रहता है। » तरंग का अस्तिभाव रहता है तब कण का नास्तिभाव विद्यमान रहता है। यह अस्ति नास्ति भाव स्वगत है, परगत नहीं। ------ स्यादवाद का तीसरा अंग 'अवक्तव्य' है। इस पर भी वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में चिंतन आवश्यक है। ------ विज्ञान जगत में अवक्तव्य का अर्थ अनप्रेडिक्टेबल के रुप में लिया गया है। सूक्ष्म पदार्थ के व्यवहार को समझने में जब यह निश्चित नहीं हो सकता है कि पदार्थ कण रूप व्यवहार कर रहा है या लहर रूप व्यवहार कर रहा है तो इसे उस समय के लिए अवक्तव्य कहा गया है। ------ इससे प्रतीत होता है कि अवक्तव्यता पदार्थ के कारण नहीं है किंतु ज्ञाता के सीमित ज्ञान के कारण है।" आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में "डॉ. महावीर राज गेलड़ा आगमों के गहन अध्येता है और विज्ञान के सद्यस्क अनुसंधानों की जानकारी रखने के लिए विज्ञान के ग्रंथों का अध्ययन करते रहते हैं।" डॉ. गेलड़ा की यह विशेषता प्रस्तुत ग्रन्थ मे अनेकशः मुखर हुई है। वे एक वैज्ञानिक हैं तो साथ में जैन विद्या मनीषी भी हैं। तेरापंथ दर्शन के प्रति गहन रुचि एवं उसकी प्रांजल
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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