SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 683
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५० शतकनामा पंचम कर्मग्रंथ. ५ एकेंजिय प्रायोग्य नामकर्मनी प्रकृति बांधे, परंतु ते बेवहा संघयणना अनुत्कृष्ट रसबंधक होय, तेथी ते न लीधा. तथा सम्यक्दृष्टि देवने ए त्रण प्रकृतिनो बंध नथी, ते जणी ते पण न लीधा ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ६६ ॥ विनवि सुरा दारग उग, सुख ग वन्न चन तेय जिण सायं ॥ सम चन परघा तस दस, पणिंदि सासुच्च खव गान ॥ ६ ॥ अर्थ-विजवि के वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, ए वैक्रियधिक तथा सुराहारगडुग के० देवगति, देवानुपूर्वी, ए सुरछिक अने थाहारकछिक तथा सुखग के शुनखगति, वन्नचज के० शुज वर्ण चतुष्क, तेय के तैजस, कार्मण, अगुरुलघु अने निर्माण, ए तैजसचतुष्क, जिण के० जिननामकर्म, सायं के शातावेदनीय, समचल के० समचतुरस्रसंस्थान, परघा के पराघात, तसदस के त्रसदशक, पणिं दि के पंचेंजियजाति, सासुच्च के० श्वासोश्वास, उचैर्गोत्र, ए बत्रीश पुण्यप्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंधक खवगान के रूपक एटले क्षपक श्रेणीयें चढतो मनुष्य तेने रूपक कहीयें. जेम राज्ययोग कुंवरने राजा कहीये, तेम चारित्र मोहनीय क्षपणी कपकश्रेणी जेणे श्रारंजी, तेने झपक कहीयें, ते मध्ये पण शातावेदनीय, उच्चैर्गोत्र अने प्रसदशक मांहेली यशःकीर्ति, एत्रण प्रकृतिनो उत्कृष्ट रस बंधक सूक्ष्म संपरायने चरम जाग वर्ति क्षपक होय. जे जणी ए त्रण प्रकृतिना बंधकमांहे एहिज अति विशुकि, अने पुण्यप्रकृतिनो उत्कृष्ट रसबंध अतिविशुद्धिय होय. जेवारें आपणा रसबधस्थानक अनंतगुण विशुद्धियें होय, तेवारें ए प्रकृति बंधाय ते नणी कही. तथा ए त्रण प्रकृति विना शेष रही जे जंगणत्रीश पुण्यप्रकृति, तेना उत्कृष्ट रसबंध अपूर्वकरणना सात नागमध्ये बरे नागें त्रीश प्रकृतिनो बंध विछेद थाय . ते मध्ये एक उपघात विना शेष जंगणत्रीश प्रकृतिने चरम बंधे दपकने अति विशुद्धि जणी चोगणि रस बंधाय. ए जंगणत्रीश प्रकृतिना बंधक मांहे एहज अति विशुद्ध डे तेथी दपक मनुष्य, एना उत्कृष्ट रस बंधना खामी जाणवा. जे जणी देवता, नारकी तथा तिर्यंचने श्रापमुं गुणगणुं न होय, तेथी ते एना अधिकारी न कह्या. अने जो पण उपशम श्रेणीयें अपूर्वकरण तथा सूदमसंपराय, ए बे गुणगणां होय, अने तिहां ए प्रकृतिनो बंध विवेद पण संनवे तथापि क्षपक श्रेणीना अध्यवसाय स्थानक थको कषायनी सत्ता सहित उपशम श्रेणीना अध्यवसाय स्थानक विशुद्धिनी अपेक्षायें अनंतगुणां हीन होय, अने शुन प्रकृतिनो सर्वोत्कृष्ट रसबंध तो श्रति विशुद्धियें बंधाय जे. तेथी दपक श्रेणीना मनुष्यज एना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy