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________________ '५७६ शतकनामा पंचम कर्मग्रथं. ५ वधारे न होय, ते जणी श्रध्रुवोदयी जाणवी. तथा जो पण सम्यक्त्वनी पेरें सादि सांत नांगे मिथ्यात्व पण बे, तो पण ते अध्रुवोदय। न जाणवू. जे जणी मिथ्यात्वो. दय नूमि प्रथम गुणगणुं ने तिहां तो अवश्य मिथ्यात्वनोज उदय होय ते जणी ए ध्रुवोदयी होय. जो तेनी पोतानी नूमिमध्ये पण केवारेंक एनो उदय न होय, तो अध्रुवोदयी कहेवाय. पणनवश्यधुवुदया के ए पंञ्चाणु प्रकृति, अध्रुवोदयी कही ॥ इति समुच्चयार्थः ॥ ७॥ ॥अथ ध्रुवसत्ताप्रकृतिराह ॥ हवे ध्रुवसत्ता प्रकृति कहे बे.॥ तस वम वीस सगते, अ कम्म धुव बंधि सेस वेय तिगं ॥ आगि तिग वेअणिअं, 5 जुअल सग उरल सास चक ॥७॥ अर्थ-तस के त्रसदशक तथा थावरदशक, एवं वीश प्रकृति तथा वनवीस के वर्णादिक वीश प्रकृतिनी सत्ता सर्व शरीरधारीने होय, ते नणी वर्णादिक वीश प्रकृति पण ध्रुवसत्ता कही, तथा सगतेथकम्म के तैजस सप्तकमध्ये तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, तैजससंघातन, कार्मणसंघातन, तैजसतैजसबंधन, कार्मणकार्मणबंधन, तैजसकार्मणबंधन, ए सात प्रकृतिनी सत्ता, सर्व जीवने होय, केम के तैजस अने कार्मणशरीर पण सर्व जीवने होय, ते माटें तेनी ध्रुवसत्ता जाणवी, अने धुवबंधिसेस के ए वर्णचतुष्क, तैजस तथा कार्मण, ए 3 प्रकृतिने मूकी शेष ध्रुवबंधिनी एकतालीश प्रकृति रही तेनां नाम कहे . शोल कषाय, १७ जय, १७ जुगुग्सा, ए मिथ्यात्व, पांच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावरणीय, पांच अंतराय, एवं मत्रीश. ३ए निर्माण, ४० उपघात, ४१ अगुरुलघु, ए एकतालीश प्रकृति पण ध्रुवबंधीनी नणी ध्रुवसत्तापणे होय, एनो बंध, सर्वदा होय तो सत्ता केम न होय ? एवं अहाशी प्रकृति ध्रुवसत्तायें कही. वेयतिगं के वेद त्रणनो बंध तथा उदय जो पण अध्रुव कह्यो बे, तो पण एनी सत्ता ध्रुव कही बे, जे जणी एकेक वेदमध्ये पण त्रण वेदना संक्रांतदल पामीयें, ते नणी ध्रुवसत्ता कहीये. एवं एकाएं प्रकृति थ. श्रागितिग के श्राकृतित्रिक, एटले संस्थानथी त्रिक लेवं. तिहां "तणुवंगागि” ए गाथानी मेले प्रथम बसंस्थान, उ संघयण अने जाति पांच. ए सत्तर प्रकृतिनी सत्ता पण पूर्वली पेरें ध्रुव जाणवी. एटले एकसो ने श्राप थ. अने वेयणियं के वेदनीयछिकनी सत्ता पण परस्पर संक्रांतदलीकनी 'अपेदायें ध्रुवसत्तायें जाणवी. एवं एकसो दश प्रकृति थ तथा पुजुअल के बे युगल एटले हास्य अने रति तथा शोक अने अरति, ए चार प्रकृतिनी सत्ता पण दपक श्रेणीय नवमा गुणस्थानकलगें सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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