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________________ ४६० बंधस्वामित्वनामा तृतीय कर्मग्रंथ. ३ एकेजियजाति, थावरनाम, श्रातपनाम, ए नरकादिक बार प्रकृति. एवं शोल प्रकृति न बंधाय. जे जणी प्रायें सहस्रार देवलोकथी उपरला घणा शुक्ललेश्यावंत देवताउँने ए शोल प्रकृति न बंधाय. अहीं देवधिक तथा वैक्रियछिकनो बंध मनुष्य तिर्यंचनी अपेक्षाये लेवो. तथा लांतक, शुक्ल ने सहस्रारना देवता शुक्ल लेश्यावंत पण तिर्यंचमाहे अवतरे, तेथी तेमने उद्योत चतुष्कनो बंध पण पामीये, परंतु अहींयां विवदो नही तेथी जाणीयें बैये के श्रानंतादिकना देवनेज शुक्कलेश्या लेखववी. तेवारें ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय वीश, आयुनी बे, नामनी त्रेपन, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, एवं एकसो ने चार प्रकृतिनो बंध उचे होय. नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण. ए सूदमत्रिक, विकलजातित्रिक,एकेंजियजाति, स्थावर अने आतप, ए बार प्रकृतिनो बंध पद्मलेश्यावंतने न होय जे जणी नारकी तथा सूदमत्रिक एकेंजियजाति अने विकलेंजियमध्ये पद्मलेश्या न होय. तेथी तत्प्रायोग्य ए बार प्रकृति अहीं न बंधाय तथा पद्मलेश्यावाला सनत्कुमारादिक देवलोकना देवता चवीने, एकेजियमध्ये न उपजे, तेथी शेष ज्ञानावरणीय पांच, दर्शनावरणीय नव, वेदनीय बे, मोहनीय बबीश, श्रायुनी त्रण, नामनी बपन्न, गोत्रनी बे अनेअंतरायनी पांच, एवं एकसो ने आठ प्रकृति उचे बांधे. तेमाहे जिननाम, थाहारकशरीर अने आहारकअंगोपांग, ए त्रण प्रकृति सम्यक्त्व चारित्र प्रत्ययिक नणी मिथ्यात्व गुणगणे न बंधाय, तेथी एकसो ने श्राप प्रकृतिमांडेथीत्रण प्रकृति टले, तेवारें एकसो ने पांच प्रकृति पद्मलेश्यावंतने मिथ्यात्वगुणगणे बंधाय. तेमांथी मिथ्यात्व प्रत्ययिक नपुंसकवेद, तिथ्यात्वमोहनीय, डैमसंस्थान, बेवहुं संघयण, ए चार प्रकृति न बंधाय, तेवारें शेष एकसो ने एक प्रकृति, सास्वादने बंधाय, अने मिङ चम्मोतेर, अविरतियें सत्योतेर, देशविरतियें शमशन, प्रमत्तें त्रेशठ अने अप्रमत्तें उंगणशाउ, अहावन्न. इत्यादिक पूर्वली परें बंधस्वामित्व लेवु. शुक्ललेश्यायें जिननाम अने श्राहारकछिक विना शेष एकसो ने एक प्रकृति मिथ्यात्वें बंधाय. ते नपुंसकादिक चज कहीने शेष सत्ताणुं प्रकृति, सास्वादने बंधाय. बीजे कर्मग्रंथें साखादन गुणगणे एकसो ने एक प्रकृतिनो बंध कह्यो जे तेमांहेथी उद्योतादिक चार प्रकृति शुक्ललेश्यावालाने उघेज न बंधाय माटे ते अहीं न लेवी, तेथी ते काढीयें, तेवारें शेष सत्ताणुं प्रकृति शुक्ललेश्यायें सास्वादन गुणगणे बंधाय, मिङ चम्मोतेर, अविरतियें सत्त्योतेर, देशविरतियें शमशठ, प्रमत्तें वेशठ, अप्रमत्तें उगणशाउ, अमावन्न अनिवृत्तियें अहावन्न, बपन्न, बबीश; निवृतियें बावीश, एकवीश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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