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________________ कर्मविपाकनामा कर्मग्रंथ. १ ३७१ मूलगा जवधारणीय शरीरथी बीजुं जावा श्राववा सारु उत्तरवै क्रियरूप करे, तेनो प्रकाश शीत होय, ते उद्योतनामना उदयथी जीवने जाणवो. तथा ज्योतिषी जे चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारा, ए चारे जातिना ज्योतिषीना विमानें जे पृथिवीका यिया रत्नना जीव, तेनां शरीर बे; तेने उद्योतनो उदय जाणवो. तेम खजुखाने पण जावो. यदि शब्द की रत्न औषधि प्रमुख रात्रें दीपक सरखी देखाय बे, ए रीतें ज्यां शीतप्रकाश देखाय, त्यां उद्योतनामकर्म उदय जावो. ॥ ४६ ॥ ॥ दवे गुरु लघु तथा तीर्थंकरनामनुं स्वरूप कहे . ॥ गं न गुरु न लहु, जाय जीवरस अगुरु लहु उदया ॥ तिचे तिहुच्प्रस्सवि, पुजो से उदर्ज केवलिणो ॥ ४७ ॥ अर्थ - अंगं के० शरीर, नगुरुनलहुश्रं के० जारी पण न थाय छाने हलवुं पण न थाय, जायजी वस्सागुरुल हुनदया के० जीवने अगुरु लघुनामकर्मना उदयथी होय ति के तीर्थंकरनामकर्मना उदयथी तिहुश्रणस्सवि के त्रिभुवनने एटले स्वर्ग मृत्यु पातालवासी जीवोने पण पुको के० पूजनीय होय. उदकेवलियो के० तेनो उदय केवलीने होय ॥ इत्यरार्थः ॥ ४७ ॥ ii ho जीवनुं श्रदारिकादिक शरीर, ते गुरु एटले नारी अत्यंत स्थूल निर्वयुं न जाय एवं पण न होय तथा लघु एटले हलवुं अत्यंत दुर्बल पण न होय, जो अत्यंत लघु होय तो वायरे उमाडतां राख्युं न जाय, तेथी अत्यंत स्थूल पण नहीं अने अत्यंत कुश पण नहीं. एवं समधारण शरीर, जे कर्मना उदयथी लहीयें, ते कर्मनुं नाम गुरुलघुनामकर्म जावं. वे तीर्थंकर नामकर्म कडे वे तीर्थंकर नामकर्मना प्रदेशोदयाथी पण श्राज्ञाऐश्वर्य अन्य प्राणीनी अपेक्षायें विशेष होय तथा जे नवें तीर्थंकर पदवी पामशे, ते जवने विषे कल्याणक महोत्सवें इंद्रादिक पूजे, स्तवे तथा एक आहारनिहार करतां कोइ देखे नहीं, बीजं रोगरहित सुगंधिसहित प्रस्वेद, मल रहित शरीर होय. त्रीजुं सुगंधिमान् श्वासोश्वास होय. चोथुं लोही, मांस उज्ज्वल. ए चार अतिशय जन्मथी प्रदेशोदय होय तथा चार घातीयां कर्म, क्षय करया पढी केवलज्ञान पामे थके तीर्थकरनामकर्मने उदयें समवसरणादि विजूति होय, पांत्रीश गुण सहित वाणीयें करी व्यजनने प्रतिबोधि तीर्थंकर कहेतां साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघनी स्थापना करे तथा प्रथम गणधरनी स्थापना करे तथा देशना फल न थाय तथा कर्मी गीयार अतिशय थाय. देवताना कस्या उंगणीश अतिशय होय, ए सर्व तीर्थंकर नामकर्मना रसोदयथी थाय ॥ ४७ ॥ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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