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________________ कर्मविपाकनामे कर्मग्रंथ.१ ३४१ विशेषनये अनेक, ज्ञाननयें शेय, क्रियानये हेयोपादेय, एम नयनिदेपासहित परस्पर सापेक्ष, अनंतधर्मात्मक, कथंचित् उत्पन्न, कथं चिहिनष्ट, कथंचिद्धव. एम त्रिरूप एकसमये सदहे, ए जिनवाणी रुचे, ते एक दायिकसम्यक्त्व. बीजं औपशमिकस. म्यक्त्व, त्रीजुं दायोपशमिकसम्यक्त्व इत्यादिक बहु नेद ने, ते देखामीयें बैयें. - तत्वार्थनी सदहणाएं एकविधसम्यक्त्व तथा आत्मानो शुझझानादिक परिणाम अथवा शुद्धपरिणति आत्मा, ते निश्चें सम्यक्त्व, अथवा वीतराग सम्यक्त्व, ते निश्चयसम्यक्त्व अने सरागसम्यक्त्व ते व्यवहारसम्यक्त्व, अथवा कुगुरु, कुदेव ने कुमागनो त्याग अने सुगुरु, सुदेव अने सुमार्गनुं श्रादरवू, एम व्यवहार सम्यक्त्व बे नेदें बे. तथा अनंतानुबंधीया चार कषाय अने दर्शनमोहनीय त्रण. ए सात प्रकृतिना हयथी प्रगटी जे तत्वरुचि ते दायिकसम्यक्त्व अने ए सात प्रकृतिने उपशमावे, ते औपशमिकसम्यक्त्व अने ए सात प्रकृतिनो रसोदय थाव्यो ते खपाव्यो शेष जदय नथी श्राव्यो, ते क्षायोपश मिक. एने यांतरे सम्यक्त्वमोहनीयोदय जपष्टं नजन्य तत्वरुचि ते वेदकसम्यक्त्व. एम त्रिविध सम्यक्त्व जाणवं. तथा जि. नोक्त करे, ते कारकसम्यक्त्व. तेहने रुचीयें करी रोचकसम्यक्त्व. प्ररूप करी दीपावे, ते दीपकसम्यक्त्व. एम अनेक प्रकारे सम्यक्त्व जाणवू ॥ १५॥ मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुहु जदा अन्ने ॥ नालिअर दीवमणुणो, मिदं जिणधम्म विवरीअं ॥१६॥ अर्थ- मीसा के मिश्रमोहनीयना उदयथी जिणधम्मे के जिनधर्मने विषे नरागदोसो के राग द्वेष न होय. अंतमुहु के अंतरमुहूर्तसुधीनो काल जहा के जेम नालिअरदीवमणुणो के नालिकेरछीपना मनुष्यने अन्ने के अन्नने विषे राग द्वेष न होय तेनी पेरें जाणवू. अने मिळं के मिथ्यात्व ते जिणधम्म विवरीअं के० श्री जिनधर्मथकी विपरीत जाणवू ॥ इत्यदरार्थः ॥ १६ ॥ मिश्रमोहनीयना उदयथी जीवने श्रीसर्वज्ञानाषित धर्म उपरें अन्यंतरराग न होय एटले श्रीवीतराग देवें कडं, ते तेमज पण अन्यथा नहीं. ए सरखं बीजें कोई जीवने हितकारी नथी, एवो अत्यंतर चित्तप्रतिबंध ते पण न होय तथा ए धर्म खोटो एम निंदारूप अत्यंतर अरुचिरूप द्वेष पण न होय: जिनधर्मने विषे मिश्रजाव होय तेनो काल अंतरमुहर्त प्रमाण बे. जेटलो व्यंजनावग्रहनो काल श्वासोश्वास पृथक्त्व प्रमाण तेटलो जाणवो. ते उपरांत मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व पामे. अहीं दृष्टांत देखाडे जे. जेम अन्न के० धान्यरसवती उपरें रुचि जे अत्यंत प्रा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002168
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages896
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size27 MB
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