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________________ श्री समयसारनाटक. ६३ए दशामें मिलिगये है; तेई बंध पति विडार पर संग मारि श्रापुमें मगन व्हेके श्रा परूप नये हैं ॥ ६॥ ___ अर्थः- जे कोई जव्य राशिमां जगत्वासी जीव बे, ते जव्यत्व परिपाकने लीधे नि कट के० पासे थया; ने मिथ्यामतिने नेदीने पोतानुं स्वरूप जे ज्ञान नाव तेने विषे परिणमी रहे बे; जेनी ज्ञानरूपी दृष्टिमां राग, द्वेषने मोह कंश पामिये नही; अने नि मल निज स्वजावनी विलोकतामा राग, द्वेषने, मोह ए त्रणेने जीती लीधा बे; श्रने पांचे प्रमाद तजी पोताना शरीरने साधीने मन, वचन अने कायाने शैलेशीकरणमा निरोध करीने शुक उपयोग दशा जे केवल दशा तेने विषेमली गया, तेवा ज्ञानी बंधनो मार्ग विडारी अने परवस्तुनो संग डोमीने श्रात्माने विषे मग्न थई श्रापरूपें थया ॥६॥ शिष्य पूजे के, एम ज्ञाताने विषे निराश्रवपणुं श्रशे तो श्रायुष्यपर्यंत ज्ञाता निरा श्रवी थशे. गुरु उत्तर श्रापे के, हातापणुं तो उपशमनावने क्षयोपशम नाववडे चं चल जे ते कहेजेः-श्रथ उपशमी क्षयोपशमी व्यवस्था कथनः ॥सवैया इकतीसा॥-जेते जीव पंमित खयोपशमी उपशमी, तिन्हकी अवस्था ज्यों बुहारकी संडासी है; दिन श्रागमांहि दिन पानिमांहि तैसे एउ, जिनमें मिथ्या त लिनु हान कला नासी है; जोलों शान रहै तोलो सिथिल चरन मोह, जैसे कीले नागकी सगति गति नासी है; थावत मिथ्यात तब नानारूप बंध करै, जो उकीले ना गकी प्रकृति परगासी है ॥ ६३ ॥ अर्थः- मिथ्यात्वनी गांठ नेद कीधा पडी जे मिथ्यात्वनो अंश उदय श्रावे ने ते जेनो खपी जाय श्रने मिथ्यात्वपुंज उपशम्यो रहे, ते जीव क्षयोपशमी कहिये अने जेने अंतरमुहर्त्तलगी उपशम्योज रहे तेने उपशमी कहिये. एवा बेन नाव ते जे जीव पंडित ने तेनी अवस्था ते लुहारनीसाणसी समान बे; जेम साणसी घडीमा लोहने ग्रहण करी आगमां होयडे, ने घमीमां तेहज साणसी लोखंडने उको करवा सारु पाणीनेविष होयजे; तेम ए क्षयोपशमी अने उपशमी जीव क्षण एकमां मिथ्यात्व नावमां आवे ने क्षणनेविषे झानकलाना प्रकाशमां रहे. एवी श्रवस्थाने विषे ज्यांसुधी झानकला रहे, त्यांसुधी चारित्र मोहनीयनी पचीस प्रकृ ति शिथिल के ढीली थई रहेजे; जेम मंत्रनी जमीए करीने सर्पनी शक्ति-गति शिथिल थई जायचे, तेम ए पण जाणवू. हवे ए जीवने फरी मिथ्यात्व उदय श्रा वे त्यारे तो नाना प्रकारना कर्मबंध करेजे; जेम नागनी उकीलनी करवाथी ना गनी पोतानी प्रकृति फरीथी प्रगटे ते रीते जाणवू. ॥ ३ ॥ हवे ज्ञानना शुद्धपणानी प्रशंसा कहेजेः-श्रथ शुभनय प्रशंसाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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