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________________ पए प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. टझुंज रहेएं होय. आंही जे एवी श्रवस्थानो धरनार होय तेतो श्रढार दूषण रहित देवाधिदेव थाय. वनारसीदास कहेडे के तेने मारी त्रिकाल वंदना ॥ ए॥ हवे अढार झूषणनां नाम कहे:-अथ श्रगरस दोष कथनः॥ कुंमलीयाः॥-पूषन श्रहारह रहित, सो केवलि संजोग; जनम मरण जाके नहीं, नहिं निसा जय रोग; नहिं निजा जय रोग, सोग विस्मय न मोहमति; जरा खेद परखेद, नाहिं मद वैर विषे रति; चिंता नांही सनेह, नाहिं जह प्यास न नू षन; थिर समाधि सुख सहित बहारह दूषन-॥ ज०॥-वानी जहां निरक्षरी, सप्तधातु मल नांहि केस रोम नख नहि बढे, परम उदारिक मांहि परम उदारिक माहि, जांहि इंजिय विकार नसि, जथाख्यात चारित प्रधान थिर सुकल ध्यान ससि; लोकालोक प्रकास, करन केवल रजधानी; सो तेरम गुनथान; जहां श्र तिशयमय वानी. ॥ १॥ दोहराः ॥-यह सजोग गुनथानकी, रचना कही थनूप; अब श्रयोग केवल कथा, कहों यथारथ रूप ॥ २ ॥ अर्थः-जे अढार खूषणथी रहित ते सजोगी केवली कहिए १,जेने जन्म नथी, म रण नबीर,निझा नयी३,जय नथी,रोग नथीए, शोक नथी ६, विस्मय नथी,मोहमति नथी. जरानो खेद नथीए, परसेवो नथी १०, मद नथी११,वैर नथी १२, विषय उपररति नथी १३, चिंता नथी १२, स्नेह नथी १५, जेने तरस लागे नही १६, नूष लागे नही १७, अस्थिरपणुं नथी १७, तेथी समाधिसुख सहित स्थिररूप थायडे, एवा अढार ५ षण रहित बे. ए अढार दोष दिगंबर संप्रदायथी बे. सिझांत संप्रदायमा १० फूषण जुदा कह्यां . ॥ ७ ॥ श्रा गुणस्थाननी अवस्थामा निरक्षरी बाणी होय ने मस्त कमां ॐकार ध्वनिरूप होयजे; श्रने शरीरमा सात धातु अने सात धातुना मल थता नथी. ए दिगंबर संप्रदायथी कहेलु बे. अने जेना शरीरमा केश, रोम, नखनी वृद्धि थती नथी, एतो उदारीक शरीरमा पण एटला दोष नथी, तेथी देवाधिदेव प रम उदारीक शरीरमांज कहिए; ज्यां इंजियविकार नासी गयाडे, ने ज्यां प्रधा न उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र प्रगट थयुं , ज्यां शुक्ल ध्यानरूप चंद्रमा स्थिररूप थ योजे, थने ज्या लोकालोकना प्रकाशनी करनारी केवल ज्ञानरूप राजधानी विराजी रही बे; ते तेरमुं सजोगी गुणस्थानक कहिए, ज्यां पांतरीश अतिशयमय वाणी ॥१॥ ए सयोगी गुणथाननी सर्वथी अधिक अनुप रचना कहीजे. हवे अयोगी के वलीनी दशा यथार्थरूप के जेवीरीते बनी तेवी रीतनी कडंबु. ॥ ७ ॥ . हवे चौदमा अयोगी गुणस्थाननुं कर्णन कहुंदु:-श्रथ चतुर्दश गुनस्थानक वर्ननं.॥ सवैया इकतीसाः॥-जहां काह जीवकों असाता उदे साता नांहि, काहकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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