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________________ ६६ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. अर्थः- ए श्रात्मा श्रलद , श्रमूर्ति , अरूपी बे, अविनाशी. श्रज के ज न्म्यो नही एवो बे, अने जेने कोईनो श्राधार नही, ज्ञानरूपी बे, तथा रंगविनानो ने विष विनानो बे. व्यवहारमा जोईये तो नाना प्रकारना वेष धरनारो बे, निश्चय मांजोईये तो वेषनो वेशधरे नही मात्र चेतनाए प्रदेशनुं धारण करनारो बे, अने चेतना नो पंध के पुंजरूप , ए उपदेश मनने बाह्यात्मानो जे. ते मनने कहे जे के, ए चिदानं द जेतेराजा ने थामिनो मोह धरे ,श्रने हे! मन ! ए चिदानंद तारामां ताराजेवो विराजे , पण निश्चयनयथकी तारा ने माराविषे एने मोह नथी, एवो निरागी नि बंध बे, एवो जे चिदानंद नगवान बे, ते अरे मन जे घटमांहे ज्यां तुं वसे तेज घटमां ते पण वसे माटे ते ईश्वरनोज विचार तुं कर, बीजो विचार सर्व इंछ रूपले. हवे ए चिदानंदनो जे रीते शुद्धानुजव थाय, ते रीते मनने उपदेश करे: अथ शुधानुनव शिदा कथन:॥ सवैया इकतीसाः॥-प्रथम सु दृष्टिसों सरीररूप कीजे जिन्न; तामै और सूबम शरीर जिन्न मानियें; अष्ट कर्मनावकी उपाधि सोई किजे निन्न, ताहमें सुबुद्धिको वि लास निन्न जानिये; तामें प्रनु चेतन विराजित अखंगरूप, वहे श्रुत ज्ञान के प्रवान ठीक श्रानिये: वाहिको विचार करि वाहिमें मगन हुजे, वाको पद साधिवेकों ऐसी विधि गनिये. ॥ ए३॥ __ अर्थः- प्रथम सम्यग् दृष्टिवडे शरीररूप बाह्यात्मा जिन्न राखवो, ते बाह्यात्माने विषे बीजुं सूक्ष्म शरीर कर्म संबंधी अंतरात्मा ने ते पण जिन्न जाणवो, ते अंतरात्मा थी परमात्माना ज्ञान दर्शननुं थाछादन थायडे, एवं श्रष्ट प्रकारचें कर्म तेना नावनी उपाधि ते पण जिन्न जाणवी थने ते अंतरात्मानेविषे सुबुझिनो विलास जे नेद ज्ञा नादिक ते पण निन्न जाणीये, थने ते सुबुषि विलासमां चेतनरूपी प्रजु जे जे तेथ खेमरूपे विराजे , अने ते चेतन श्रुत ज्ञानना प्रमाणयी हृदयमां सारी पठे ठरावि ये, ए रीते हे ! मन ! तुं तेनाज विचारमा मग्न रेहेजे, ने ते चेतन, पद साधवाने एटले मोद मार्ग ग्रहवाने एज विधि युक्त ने एम जाणजे. ॥ ए३॥ हवे ज्ञाता जीव, खरूप वर्णवे :- श्रथ ज्ञानी जीव कथन:॥ चोपाईः॥-इहि विधि वस्तु व्यवस्था जाने; रागादिक निजरूप न माने; तातें ज्ञानवंत जगमांही, करम बंधको करता नाही. ॥ ए॥ अर्थः- ए रीते वस्तुनी व्यवस्था जाणे अने राग द्वेषादिक जे नाव , तेने पोता नुं रूप न माने, तेणे करीने ज्ञानवंतने जगत्मां कर्म बंधनो कर्त्ता कह्यो नथी. पाठ कर्म तेने बंध करी शकतां नथी. ॥ ए४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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