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________________ ३६ थी कि उसकी पुत्री का विवाह किसी साधारण सेठ के लड़के से सम्पन्न हो। अतः उसने स्पष्ट रूप से इन्कार कर दिया और कहलवाया कि विवाह सम्बन्ध समानशील गुण-वाले के साथ ही सम्पन्न होता है। अतएव तरंगवती का विवाह पद्मदेव के साथ सम्पन्न नहीं हो सकता है। ऋषभसेन द्वारा इन्कार करने से पद्मदेव की अवस्था और खराब होने लगी। प्रेम का उन्माद उत्तरोत्तर और बढ़ता जाता था और उसे बेचैन बना रहा था। तरंगवती को जब अपनी सखी द्वारा यह समाचार अवगत हुआ तो वह बहुत चिन्तित हुई और उसने अपने प्रेमी से मिलने का निश्चय किया और एक रात को वह अपने घर के सारे ऐश्वर्य और वैभव को छोड़कर चल पड़ी अपने प्रिय से मिलने के लिये। मध्यरात्रि में वह पद्मदेव से मिली और दोनों ने निश्चय किया कि नगर छोड़कर हमलोग बाहर चलें, तभी शान्तिपूर्वक रह सकते है। जन्म-जन्मान्तर के प्रेम को सार्थक बनाने के लिये नगर त्याग के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। फलतः वे दोनों नगर से बाहर जंगल की ओर चल पड़े। चलते-चलते वे एक घने जंगल में पहुंचे, जहां चोरों की बस्तियां थीं। वे चोर अपने स्वामी के आदेश से कात्यायनी देवी को प्रसन्न करने के लिये नरबलि देना चाहते थे। उनका विश्वास था कि नरबलि देने से कालिदेवी प्रसन्न हो जायगी, जिससे लूट-पाट में उन्हें खूब धन प्राप्त होगा। चोरों ने मार्ग में आते हुए पद्मदेव को पकड़ लिया और बांधकर बलिदान के निमित्त लाये। तरंगवती ने इस नयी विपत्ति को देखकर विलाप करना शुरू किया। उसके करुण क्रन्दन के समक्ष पाषाण शिलाएं भी द्रवित हो जाती थीं। एक सहायक चोर का हृदय पिघल गया और उसने किसी प्रकार पद्मदेव को बन्धनमुक्त कर दिया एवं अटवी से बाहर निकाल दिया। वे दोनों अनेक गांव और नगरों में घूमते हुए एक सुन्दर नगरी में पहुंचे। इधर तरंगवती के माता-पिता उसके अकस्मात् घर से चले जाने के कारण बहुत दुःखी थे। उन्होंने तरंगवती को ढ़ ढ़ने के लिये अपने निजी व्यक्तियों को चारों ओर भेजा। कल्माष नामक नौकर उसी नगरी में तलाश करता हुआ आया। वह उन्हें कौशाम्बी ले गया और यहां उनका विवाह सम्पन्न हो गया। कथा के अन्तिम खंड में बताया गया है कि ये दोनों पति-पत्नी वसंत ऋतु में एक समय वन-विहार के लिये गये। वहां इन्हें एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि ने अपनी आत्मकथा सुनायी, जिससे उन्हें विरक्ति हुई और वे दोनों दीक्षित हो गये। मैं वही तरंगवती हूं। यह समस्त कथा उत्तम पुरुष में वर्णित है। इसमें करुण, श्रृंगारादि विभिन्न रसों, प्रेम की विविध परिस्थितियों, चरित्र की ऊंची-नीची अवस्थाओं, वाह य और अन्तःसंघर्ष के द्वन्द्वों का बहुत ही स्वाभाविक और विशद चित्रण हुआ है। इसमें प्रेम का आरम्भ नारी की ओर से होता है। यह प्रेम विकास की विशुद्ध भारतीय पद्धति है। यद्यपि प्रेम का आकर्षण दोनों में है, प्रेमी और प्रेमिका दोनों ही मिलने के लिए व्यग्र है, पर त। भी वास्तविक प्रयत्न प्रेमिका की ओर से ही किया गया है। तरंगवती त्याग, विसर्जन, सहिष्णुता एवं निःस्वार्थ सेवा आदि गुणों से पूर्ण है। उसका प्रेम अत्यन्त उदात्त है। अपने प्रेमी में उसकी एकनिष्ठता, निःस्वार्थ भाव और तन्मयता प्रशंस्य है। मनोविज्ञान के प्रकाश में इस प्रेम की पटभूमि में विशुद्ध वासनामूलक राग तत्त्व ही दृष्टिगोचर होगा, पर इसे निराशारीरिक प्रेम नहीं कहा जा सकता है । इसमें मानसिक और आत्मिक योग भी कम नही है। यही कारण है कि आगे जाकर इस प्रेम का उदात्तीकरण हो गया है और राग-विराग में परिवत्तित हो तरंगवती जैसी प्रेमिका को सुव्रता साध्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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