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________________ ३२ सीता को भयानक अटवी से ले जाकर अपने यहां बहन की तरह रखता है । यहां पर लवण और अंकुश का जन्म होता है । वे दोनों देश विजय के पश्चात् अपनी माता के दुःख का बदला लेने के लिये राम पर चढ़ाई करते हैं और अंत में पिता के साथ उनका प्रेमपूर्वक परिचय होता है । सीता की अग्नि परीक्षा होती है । वह विरक्त होकर तपस्या करने चली जाती हैं और स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग प्राप्त करती है । लक्ष्मण की मृत्यु हो जाने पर राम शोकाभिभूत हो जाते हैं, कुछ काल के बाद बोध प्राप्त होने पर दिगम्बर मुनि हो दुर्द्धर तपश्चरण करते हैं और अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं । इस चरितं काव्य को कथा की दृष्टि से सफल धार्मिक उपन्यास कहा जा सकता है । इसकी आधिकारिक कथा राम की हैं, आवान्तर या प्रासंगिक कथाएं वानर वंश और विद्याधर वंश के आख्यान रूप में आयी हैं । कथानक अत्यन्त रोचक और सुन्दर हैं । कथा में प्रवाह सर्वत्र मिलता है । इसमें कथांश की अपेज्ञा वर्णन कम हैं । नगर, नदी, तालाब, जिनालय, पर्वत और समुद्र आदि के वर्णन रोचक और हृदय ग्राहय रूप में वर्तमान हैं । यत्र-तत्र चरित्र-चित्रण की दृष्टि से इस कथाकृति के सभी प्रमुख पात्रों के शील का उदात्त रूप उपलब्ध होता है । बाल्मीकि रामायण में जिन अन्धविश्वासों और ऊटपटांग बातों का जमघट था, वे इसमें बिल्कुल नहीं हैं । रावण धर्मात्मा और व्रती पुरुष हैं । उसने नलकुबेर की रानी उपरम्भा के प्रस्ताव का दुरुपयोग नहीं किया, किन्तु उसे इस जघन्य कृत्य से बचाया । सीता की सुन्दरता पर मोहित होकर रावण ने उसका अपहरण किया, पर सीता की इच्छा के विरुद्ध उसपर कभी बलात्कार करने की चेष्टा नहीं की । जब मन्दोदरी ने बलपूर्वक सीता के साथ दुराचार करने की सलाह रावण को दी, उसने उत्तर दिया “यह संभव नहीं है, मेरा व्रत है कि किसी भी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध बलात्कार नहीं करूंगा ।" वह सीता को लौटा देना चाहता है, किन्तु लोग कायर न समझ लें, इस भय से नहीं लौटाया । उसने मन में निश्चय किया था कि युद्ध में राम और लक्ष्मण को जीतकर परम वैभव के साथ सीता को वापस करूंगा, इससे कीर्ति में कलंक नहीं लगेगा और यश भी उज्ज्वल हो जायगा । 'रावण की यह विचारधारा रावण के चरित्र को उदात्त भूमि पर ले जाती है । वास्तव में विमलसूरि ने अपनी इस कृति में रावण के चरित्र को बहुत ऊंचा उठाया है । दशरथ राम के वियोग में अपने प्राणों का त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भय वीर की तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं । कैकेयी ईर्ष्याविश भरत को राज्य नहीं दिलाती, किन्तु स्वामि और पुत्र दोनों को दीक्षा ग्रहण करते हुए देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है । अतः वात्सल्य भाव से प्रेरित हो अपने पुत्र को गृहस्थी में बांध रखना चाहती है । फलतः भरत के लिये राज्य प्राप्ति का वरदान मांगती है । इस कथाकृति की निम्न विशेषताएं उल्लेखनीय हैं: :--- (१) बाल्मीकि रामायण की विकृतियों को दूर कर यथार्थ बुद्धिवाद की स्थापना । (२) राक्षस और वानर आदि को नृवंशी मानमा । मेघवाहन ने लंका तथा अन्य द्वीपों की रक्षा की थी, अतः रक्षा करने के कारण उसके वंश का नाम राक्षस वंश प्रसिद्ध हुआ । विद्याधर राजा अमरप्रभ ने अपनी प्राचीन परम्परा को जीवित रखने के लिये महलों के तोरणों और ध्वजाओं पर वानरों की आकृतियां Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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