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________________ ३६० धरण की कथा से भी भारत, द्वीपान्तर और चीन के बीच जहाज द्वारा व्यापार करने की प्रथा पर पूरा प्रकाश पड़ता है। यह वैजयन्ती बन्दरगाह से चलकर सुवर्णद्वीप पहुंचा और यहां उसने विचित्र धातुक्षेत्र समझकर स्वनामांकित दस-दस ईटों के सौ ढेर सोने की ईटों के तैयार किये । इसके बाद उसने अपना पता देने के लिये भिन्न पोतध्वज लगा दिया। इसी बीच चीन से साधारण कोटि का सामान लादे हुए सुबदन सार्थवाह का जहाज जा रहा था। उसने नौका भेजकर धरण को अपने जहाज पर बैठाया। जहाज रवाना होते समय स्वर्णद्वीप की स्वामिनी देवी ने उसे रोका। हेमकुण्डल की सहायता से वह रत्नद्वीप पहुंचा और वहां से रत्न प्राप्त किये ।। ___ इस प्रकार हरिभद्र के पात्र व्यापार (वाणिज्य) करते हुए दिखलायी पड़ते हैं। धरण ने उत्तरापथ के प्रमुख नगर अचलपुर में चार महीना रहकर "विभागसंपत्तीए य विक्किणियमणेण भण्डं, समासाइओ अट्ठगुणो लाभो" अपना माल बेचकर आठ गुणा लाभ प्राप्त किया। व्यापारी दिशा वाणिज्य के लिये निरन्तर जाते रहते थे। जहाज द्वारा वाणिज्य के अतिरिक्त स्थल में बैलगाड़ियों द्वारा वाणिज्य सम्पन्न होता था। माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर बैलगाड़ियों के द्वारा ही ले जाया जाता था। व्यापार 'चेलादिभण्ड' (पृ० १७२) वस्त्र, कपास, सन, अनाज, आदि पदार्थों का होता था। हरिभद्र के समय में देश की स्थिति अच्छी प्रतीत होती है। धन, धान्य, सुवर्ण, मणि, मौक्तिक, प्रवाल, द्विपद और चतुष्पद :--पालतू पशु आदि सम्पत्ति थी। दीनार ५ शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर आया है। हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, पद्मराग, पुष्पराग, प्रवाल आदि उस समय का प्रधान धन था। धार्मिक स्थिति और शिक्षा साहित्य हरिभद्र स्वयं जैन धर्मावलम्बी है, अतः जैनधर्म का सांगोपांग विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। दर्शन और आचार का व्यापक मानचित्र इनकी कथाओं में वर्तमान है। श्रावक के द्वादश व्रत, मुनिधर्म-व्रत, समिति, गुप्ति, परीषहजय, भावना, सात तत्व, कर्मक्षय करने का क्रम, संसार असारता, कालप्ररूपणा, कल्पवृक्षों का वर्णन, भोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था, चारों आयु के बन्ध के कारण, अन्य समस्त कर्मों के आस्रव, रत्नत्रय, संयम, नरक और स्वर्ग के विस्तृत विवेचन, सिद्ध सुख का अनुपम वर्णन, व्रतों का अतीचार सहित विस्तृत विवेचन, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी की व्यवस्था का वर्णन किया हरिभद्र ने जैनधर्म के विवेचन के साथ इन कथाओं में दान, शील, तप और सद्भावना रूप लोकधर्म का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। यह लोकधर्म ऐहिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से सुख और शान्ति का कारण है। जिसकी आत्मा में इन गुणों का विकास हो जाता है वह सत्कर्मी और संस्कारी बन जाता है। यह लोकधर्म वर्गगत और जातिगत विषमताओं से रहित है, मानव मात्र का कल्याण करने वाला है। १---स० ५० ५५२--५५६ । २--वही, प० ५०९। ३--द० हा० पृ० ११८ । ४-स० पृ० ३९ । ५--वही, पृ० ११४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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