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________________ ३७६ में माता आपस्तम्ब का कथन है कि "माता पुत्र का महान् कार्य करती है, उसकी शुश्रूषा नित्य हैं, पतित होने पर भी ।" बौद्धायन ने पिता माता का भरण-पोषण करने के लिए कहा है। महाभारत (शान्ति० २६७, ३१, ३४३, १८) में माता की प्रशंसा करते हुए कहा है कि माता के समान कोई शरण नहीं और न कोई गति है । इससे स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य में माता का स्थान मूर्धन्य रहा है । हरिभद्र ने भी माता की महत्ता स्वीकार की है। जय अपनी मां की प्रसन्नता के लिए विजय को राज्य सौंप कर मुनि बन जाता है। वह कहता है कि "करेउ पसायं अम्बा, पवज्जामि ग्रह समणत्तणंति । भणिऊण निवडिओ चलणे सु ""। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्र की दृष्टि में माता का स्थान समाज में बहुत उन्नत था । ११४ वेश्या -- वेश्यावृत्ति बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है । हरिभद्र के निर्देशों से ज्ञात होता है कि उस समय इसको सामाजिक तथा विधिक रूप प्राप्त था। मनुष्य की कामवासना और सौन्दर्य-प्रियता ही इसके मूल में थी । वैदिक काल (ऋग्० १, १६७, ४) में ही वेश्या के अस्तित्व के उल्लेख मिलते हैं । धर्मसूत्र और महाकाव्यों में अनेक उदाहरण और प्रसंग इस सम्बन्ध में पाये जाते हैं । हरिभद्र ने वेश्या के लिए गणिका, वारविलासिनी और सामान्या शब्द का प्रयोग किया है । वेश्याएं उत्सवों में नृत्य करती थीं । विवाह के अवसर पर वर का शृंगार भी वारविलासिनियां ही करती थीं । देवदत्ता गणिका उज्जयिनी को अत्यन्त प्रसिद्ध गणिका थी । धनिक अचल अपना सर्वस्व समर्पित कर इसे अपने अधीन करना चाहता था, किन्तु वह मूलदेव के गुणों में अनुरक्त थी । अतः मूलदेव के साथ ही रहने लगी थी । यह सत्य ह कि वेश्या का स्थान समाज में श्राज की अपेक्षा उन्नत था । वह इतनी घृणित नहीं समझी जाती थी । नृत्य, संगीत आदि ललित कलाओं में यह अत्यन्त निष्णात होती थः । साध्वी -- समाज में साध्वी अत्यन्त मान्या और पूज्या थी । संसार से विरक्त होकर आत्मकल्याण में रत रहती थी । प्रधान गणिनी का संघ चलता था । इसके साथ में अनेक साध्वियां रहती थीं । श्रमणव्रतों का सांगोपांग पालन करती हुई ये आत्म कल्याण में रत रहती थीं । साध्वी के व्रतों को हम पलायनवादी वृत्ति नहीं कह सकते, बल्कि श्रात्मकल्याण करने की यह आन्तरिक प्रवृत्ति थी । अवगुंठन ( पर्दा ) -- सामाजिक लज्जा और गोपन की प्रवृत्ति से जीवन में एकान्त और जनसमूह की दृष्टि से बचाव तो थोड़ी-बहुत मात्रा में सदा रहा है, किन्तु स्त्रियों के मुंह को ढंकना, उसको घर के विशेष भाग में नियन्त्रित रखना तथा घर के बाहर सामाजिक कार्यों के लिए निकलने न देना एक विशेष प्रकार की प्रथा है । हरिभद्र ने इस प्रथा का उल्लेख नहीं किया । कुसुमावली विवाह के अवसर पर जब मण्डप में आती है तब हम उसके मुंह पर अवगुंठन पाते हैं। सखियां उसके मुख का अवगुंठन हटाकर मुख खोल देती हैं। यह अवगुंठन मात्र लज्जा या विवाह की प्रथा के कारण ही है । अन्य स्थलों पर हमें हरिभद्र १ - - प्राचार्य श्रेष्ठो गुरुणां मातेत्येके । गो० ध० सू० २ । ५६ । २- प्रा० घ० सू० १, १०, २८. ε। ३ -- पतितामपि तु मातरं विभयादभिभाषमाणः । ब० ध० सू० २.२, ४८ । ४ -- स०, पृ० ४८५ । ५- - वही, पृ० ३३६-३४० । ६ -- ताव पसाहणनिउणवारविलयाहि- वही, पृ० ६६ । ७ -- पच्छाइयाणा, स०, पृ० ६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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