SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० हरिभद्र के विश्लेषण के अनुसार आत्म-संरक्षण और आत्म विकास की भावना ने मानव समाज में विवाह और परिवार की संस्था को उत्पन्न किया है । मातृस्नेह, पितृप्रेम, दाम्पत्य- आसक्ति, अपत्यप्रीति और सहवर्तिका परिवार के मुख्य आधार हैं। इन आधारों पर ही परिवार के प्रासाद का निर्माण होता है । हरिभद्र की कथाओं में पितृसत्तात्मक परिवारों का ही उल्लेख मिलता है तथा ये पितृसत्तात्मक परिवार संयुक्त और असंयुक्त दोनों रूपों में मिलते हैं । हरिभद्र के पात्र यातायात की असुविधाओं और यात्राओं के भारी खतरों के रहने पर भी समुद्र यात्रा करते थे । धनार्जन के लिए पत्नी सहित विदेश जाते थे । अतः परिवार विघटन के उपादान हरिभद्र ने एकत्र कर दिये थे । फलतः असंयुक्त परिवारों का निर्देश हरिभद्र ने उस आठवीं शती में किया है। संयुक्त परिवार के सभी साधन और उपादान उस समय प्रस्तुत थे । राजनीतिक परिस्थिति भी उस समय देश की इसी प्रकार की थी, जिसमें संयुक्त परिवार ही टिक सकते थे । गुप्त युग में हूणों के जबर्दस्त हमले हुए। इनसे लड़ते-लड़ते गुप्त सम्राटों की शक्ति क्षीण हो गई। आठवीं शती के आरम्भ में सिन्ध पर अरबों के आक्रमण प्रारम्भ हुए। ये लोग न केवल राजनं तिक विजेता थे, अपितु इस्लाम की ओजस्विनी और उग्र भावना से अनुप्राणित थे । अतः संयुक्त परिवार के लिए यह स्थिति बड़ी अनुकूल थी। बाप-दादा की सम्पत्ति छोड़कर अन्यत्र नये स्थान में जाने का साहस सामान्यतः नष्ट हो चुका था। राज्य की अव्यवस्था के कारण नरेशों के आपसी आक्रमणों के अतिरिक्त चोर, डाकू और लुटेरों का भी पूर्ण आतंक था। सेना और पुलिस के विशाल तथा व्यवस्थित संगठन भी नहीं थे । अतः एक बड़े संयुक्त परिवार की आवश्यकता थी, जो सुगमता से अपनी रक्षा कर सके । विघटित परिवार को तो आसानी से लूटा जा सकता था । संयुक्त परिवार आर्थिक दृष्टि से भी सबल रहता था । हरिभद्र द्वारा प्रतिपादित संयुक्त परिवार के घटक हरिभद्र ने जिस संयुक्त परिवार का निर्देश किया है, उसके तीन प्रमुख घटक हैं -- (१) दाम्पत्य सम्बन्ध - स्त्री-पुरुष का यौन सम्बन्ध जीवन का प्राथमिक आधार है, पर अंतिम नहीं | कर्तव्य और भावना इसके उच्चतर आधार थे, जिनके प्रभाव से यौन सम्बन्ध को भी सार्थकता और महत्त्व मिलता था। धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक कर्तव्यों के पालन में दम्प को पूरी समानता और सहकारिता थी। पति और पत्नी के बीच विलासवती और सनत्कुमार, रत्नवती और गुणचन्द्र एवं शक्तिवती और सेनकुमार के दाम्पत्य जीवन हमारे समक्ष परिवार का यथार्थ रूप उपस्थित करते हैं । कुसुमावली और सिंहकुमार का दाम्पत्य जीवन भी गार्हस्थ्य जीवन के मधुर सम्बन्ध की सुन्दर अभिव्यंजना करता है। पति के अनुशासन का क्षेत्र सीमित था । वह पत्नी के साथ पाशविक व्यवहार करने में स्वतंत्र नहीं था । लक्ष्मी और जालिनी जैसी नारियां अक्षम्य अपराध करने पर भी क्षम्य और दया की पात्री समझी जाती थीं । पति पत्नी को हृदय से प्यार करता था, अतः वह व्यापार के लिये या अन्य किसी कारणवश बाहर जाने पर पत्नी को साथ ले जाता था । धरण और धन दोनों ही सार्थवाह अपनी पत्नियों को यात्रा के लिए जाते समय साथ लेकर गये थे । पत्नी गृहस्थी के कार्यों की सावधानीपूर्वक देखभाल करती थी। घर की वस्तुओं को साफ-सुथरा रखने का दायित्व पत्नी का ही था। धार्मिक कृत्यों के अनुष्ठान का कार्य, भोजनादि की तैयारी एवं सम्पूर्ण गृहस्थी के निरीक्षण का कार्य, पति के आज्ञानुसार गृहस्थी का भार वहन तथा आवश्यकता के समय पति को उचित परामर्श देना आदि समस्त बातों का सम्पादन पत्नी द्वारा होता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy