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________________ ३४८ ऐरावत क्षेत्र जम्बद्वीप का सातवां क्षेत्र है। यह उत्तर में स्थित है। इसका विस्तार आदि भी भरत क्षेत्र के समान ही है । जम्बूद्वीप का चौथा क्षेत्र विदेह' है । इसके पूर्व और पश्चिम में भद्रशाल वन स्थित है । विदेह क्षेत्र का व्यास ३३,६८४ : योजन है। विदेह क्षेत्र में सीता और सीतोदा नदियों के तट पर ३२ देश स्थित है । विदेह के दो भाग हैं। हर एक विदेह में सोलह-सोलह देश स्थित है। (आ) पर्वत __पर्वतों में हिमवत्, विन्ध्य, मलय, लक्ष्मी, सुंसुमार, वैताद्य और शिलीन्ध्र के नाम प्राय है। हिमवत् --जै न भूगोल के अनुसार यह जम्बूद्वीप का पहला कुलाचल है, इस पर ११ कूट है। इसका विस्तार १,०५२,२ योजन है। इसकी ऊंचाई १०० योजना और गहराई २५ योजना बतलायी गयी है । ___ समराइच्चकहा के वर्णन निर्देश से ऐसा लगता है कि यह प्रसिद्ध हिमालय पर्वत है । हिमालय तीन भागों में विभक्त है--उत्तर, मध्य और दक्षिण। उत्तरमाला पूर्व और पश्चिम भागों में बंटी हुई है । हिमालय के पश्चिम भाग की चोटी की ऊंचाई २८,२६५ फुट है । उत्तरमाला और मध्यमाला के बीच कैलाश पर्वत है । मध्यमाला नंगपर्वत से प्रारंभ होती है। नंग की ऊंची चोटी २६,६२६ फुट है। मध्यमाला का दूसरा अंश नेपाल, सिक्किम और भूटान राज्य के अन्तर्गत है । हिमालय का यह स्थान तुषारखण्ड द्वारा सर्वदा आच्छादित रहता है । विन्ध्यगिरि--मध्य भारत में उत्तर पश्चिम विस्तृत श्रेणी विन्ध्यगिरि के नाम से प्रसिद्ध है । प्राचीन काल में ताप्ती और नर्मदा के मध्यवर्ती सतपुरा की सुरम्य और सुदृश्य पहाड़ी या शैलभमि विन्ध्यपर्वत के नाम से प्रसिद्ध थी। पर वर्तमान में केवल नर्मदा के उत्तर में अवस्थित शाखा-प्रशाखाओं में विस्तृत पर्वत ही विन्ध्यगिरि के नाम से प्रसिद्ध है। देवी भागवत (१०-३-७) में इसे सभी पर्वतों में श्रेष्ठ माना है। मार्कण्डेय पुराण (५७/५१--५५) में इस पर्वत के मध्य भाग में नर्मदा के तट तक दक्षिण पादमूल में असभ्य जातियों के बसने का उल्लेख है। मनुस्मृति (२-२१-२२) में हिमालय और विन्ध्य के मध्यवर्ती प्रदेश को मध्यदेश माना है। प्रोल्डहम और मेडलिकेट ने विन्ध्यपर्वत के भूतत्व की पालोचना करके लिखा है कि यह पर्वतमाला दाक्षिणात्य को १-एखए खत्ते-स० पृ० १२७ । २--इहेव विदे हे स० पृ० १२० विशेष के लिए देखें त्रिलोकसार गाथा ५६४, ६०५, ६३४, ६६५, ६८१, ७३०, ८८२ । :--त्रिलोकसार गाथा ७२५-७२६ । ४--हिमवन्तपव्वयगयस्स दरिहरुग्गयं-स० पृ० ५०२ । ५--विंझगिरिपव्वए अणे गसत्तवावायणपरो--स० पृ० १२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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