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________________ ३४१ व्याख्या करने की अपेक्षा उदात्त भावनाओं, स्वाभाविक स्नेहसूत्रों और सदाचार का प्रसार आवश्यक हैं। हार्दिक एवं निश्छल प्रेमभाव, प्रकृत्रिम निःस्वार्थ, सहकारिता और प्रान्तरिक दृढ़ता भारत में धर्म और समाज रचना की आधारशिला है । हरिभद्र की दृष्टि मानव को भौतिक ऐषणाओं के अधीन और मनुष्य द्वारा रचित व्यवस्थाओं से जकड़ा हुआ नहीं मानती । व्यक्ति स्वातन्त्र्य पर उनकी अविचल निष्ठा है । पंचाणुव्रतों के सम्यक पालन, जीवन के चारों पुरुषार्थों को सम्यक् रूप से अंगीकृत करने से अर्थ तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति, उसका समुचित उपभोग -- दान आदि द्वारा व्यय, कर्त्तव्य पालन (धर्म) और ग्रात्मसाक्षात्कार से प्राप्त हो सकती है । पर यह स्वतन्त्रता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का जो अविरोध रूप से सेवन करता हैं, उसीका श्राचरण सन्तुलित रहता है । धर्म से संसार और समाज की धारणा होती हैं और धर्म का स्थायी भाव ही मनुष्य की प्रकृति प्रदत्त स्थिर वासनात्रों और प्रकृतियों को शाश्वत मूल्य और महत्त्व प्रदान करता है । इन प्रकृतियों और इच्छात्रों के कारण उत्पन्न होने वाली कर्म प्रेरणा और स्फूर्ति वास्तव में एक देवी शक्ति है, क्योंकि उसमें काम, क्रोध, लोभ, माया आदि विकारी प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं । धर्म या कर्त्तव्य में बाधक न होने वाला विवाह, परिवार, धन और सुख प्राप्ति की इच्छाएं वास्तविक और दिव्य होती हैं । पंचाणुव्रत, दैनिक कर्त्तव्यपालन, विकार निग्रह और सहिष्णुता से ही हमारी समाज रचना और समाज संगठन के महान् सिद्धान्तों का जन्म हुआ है । सिद्धान्त यह है कि संस्कार, समाज के प्रति कर्त्तव्यपालन एवं उदार दायित्वपूर्ण श्राचार-व्यवहार से मनुष्य के स्थान, उसके अधिकार और उसकी प्रतिष्ठा का निर्णय होता है । सांसारिक संपत्ति या ऐश्वर्य वितरण के विषय में हरिभद्र का सिद्धान्त यह है कि दान देने ही संपत्ति शुद्ध होती है । जो व्यक्ति दान किये बिना सम्पत्ति का उपभोग करता है, वह चोर के समान दंडनीय है । दान की सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में समराइच्चकहा म बतलाया है -- लोए सलाहणिज्जो सो उ नरो दीणपणइवग्गस्स । जो देइ नियभुयंजियमपत्थिश्रो दव्वसंघायं ॥ -- स० पृ० २४० अर्थात् निजभुजोपार्जित धन में से दोन और प्रश्रितजनों को बिना याचना के ही दान देना चाहिये । इसी प्रकार व्यक्ति के कार्य के सम्बन्ध में हरिभद्र का मत है कि श्रम करना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है । प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति का अपना-अपना कर्मक्षेत्र अलगअलग होता है और वह अपने गुण-स्वभाव के अनुसार अपने कर्तव्य में रत रहकर At a यक्तिक र सामाजिक कार्यों को संपन्न कर सकता है । अपरिग्रह की प्रवृत्ति द्वारा धन के समान वितरण को समाप्त कर समाज में समत स्थापित करने का प्रयास हरिभद्र ने किया है । व्यक्ति की कोई भी किया अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये न होकर समाज के विकास के लिये होनी चाहिये । समस्त समाज के स्वार्थ को अपने भीतर समाविष्ट कर प्रवृत्ति करने से समाज में सख-शान्ति स्थापित की जा सकती है । Jain Education International समाज व्यवस्था के लिये श्रावश्यक उपादान विश्वप्रेम और श्रहिंसा हैं । इन सिद्धान्तों से हो विभिन्न दलों, वर्गों और जातियों में प्रेमभाव स्थापित किया जा सकता है । अधिकारापहरण और कर्त्तव्य श्रवहेलना समाज के लिये विघातक हैं । अतः जो जीवन हंसा को अपना लेता है, वही श्रेष्ठ समाज - सदस्य हो सकता है । वास्तविकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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