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________________ ३०५ अपने ऊपर पड़ने के साथ कर्मवर्गणाओं-- बाह्य भौतिक पदार्थों पर जो लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं, पड़ता है, जिससे कर्मपरमाणु अपनी भावनाओं के अनुसार खिंच आते हैं और आत्मा के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं । पूवबद्ध कर्म के उदय से राग-द्वेष, मोह, आदि विचार उत्पन्न होते हैं और इनमें आसक्ति होने से नवीन कर्म बन्धते हैं । जो जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा विकारों के उत्पन्न होने पर आसक्त नहीं होता अथवा विकारों को उत्पन्न करने वाले कर्मों को उदय में आने के पहले ही नष्ट कर देता है, वह कर्मबन्धन से छूटता है । कर्मों के उदय से विकारों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है, पर पुरुषार्थी व्यक्ति उन विकारों के वश में नहीं होता तथा उन्हें अपना विभावरूप परिणमन समझकर पृथक्त्व का अनुभव करता है । तीसरा तस्त्र आस्रव हैं । कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। आत्मा में मन, वचन और शरीर की क्रिरा द्वारा स्पन्दन होता है, जिससे कर्म परमाणु आते हैं । दूसरे शब्दों में बन्ध के कारण को आस्रव कहते हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये आस्रव के भेद हैं। चौथा बन्ध तत्र है। आत्मा और कर्मों के मिलने या विशिष्ट सम्बद्ध होने को बन्ध कहते हैं । बन्ध जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों में होता है । पांचवां संवर तत्व है । आस्रव का रोकना संवर कहलाता है । छठवां तत्र निर्जरा है । कर्मों का एक देश क्षय-थोड़ा झड़ना निर्जरा है और समस्त कर्मों का क्षय होना मोक्ष नामक सातवां तत्र है । इस प्रकार छः द्रव्य और सात तत्रों के यथार्थ श्रद्धान द्वारा सम्यक्त्व प्राप्ति की ओर संकेत किया गया है । इस सम्यक्त्व के तीन भेद हैं- उपशम सम्यक्त्व - - कषाय और विकारों के दबा देने पर आत्मा में जो निर्मलता उत्पन्न होती हैं, वह उपशम सम्यक्त्व है । मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शन मोहनीय कर्म की एक या तीन, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन पांच या सात प्रकृतियों के उपशम से जो तत्र श्रद्वान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं । क्षायिक सम्यक्त्व - - अनन्तानुबन्धो की चार और दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्र, सम्प्रमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जो निर्मल तत्त्रप्रतीति होती है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । क्षामोपशमिक सम्यक्त्व -- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्य मिथ्यात्व इन छः प्रकृतियों में से किन्हीं के उपशम और किन्हीं के क्षय से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो आत्मरुचि उत्पन्न होती है, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इस प्रकार सम्यग्दर्शन सहित श्रावक या मुनिधर्म का निर्दोषरूप से पालन करते हुए कर्म-बन्धन को नष्ट कर आत्मोद्धार में संलग्न कराना ही इस धर्मकथा का उद्देश्य है । संक्षेप में इसके उद्देश्यों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है :-- (क) निदान - - साकांक्ष कम करने का निषेध | (ख) संसार - त्याग । (ग) जैन धर्म की दीक्षा -- श्रावक या मुनि के रूप में । (घ) आत्म कल्याण की प्रेरणा । २० -- २२ एड० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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