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________________ २९४ (३०) पडिकूलस्य विहिणो वियम्भियं -- स० ष० भ० पृ० ५२२ । भाग्य के प्रतिकूल होने पर सभी वस्तुएं विपरीत परिणत हो जाती हैं । (३१) लज्जावणिज्जयं श्रणाचिक्खणीयम् - - स० ब० भ० पृ० ५५५ । जिसके कहने से लज्जा श्राती हो, उसे गोप्य रखना चाहिए । (३२) जलणो वि धप्पइ सुहं पवणो भुयगो य के गइ नएण । महिलामणो न घेइ बहुएहि वि नयसहस्सेहि ॥ -- स० ष० भ० पृ० ५५४ । अग्नि को सुखपूर्वक ग्रहण कर सकते हैं तथा किसी चतुराई से पवन और सर्प को भी ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु सहस्त्रों प्रकार की चतुराई करने पर भी स्त्री के मन को कोई नहीं ग्रहण -- वश कर सकता है । ( ३३ ) मइरा विय मयरायवडणी चे व इत्थिया हवइति । -- स० ष० भ० पृ० ५५४ । मदिरा के समान मदराग को बढ़ाने वाली नारियां होती हैं । (३४) सन्तगुणविप्पणासे प्रसन्तदो सुब्भवे य जं दुक्खं । तं सोइ समुदं कि पुण हिययं मणुस्साणं ॥ -- स० स० भ० पृ० ६४६ ॥ सद्गुण के विनाश और असद् दोष के उद्भावन में जो दुःख होता है, वह समद्र का शोषण कर सकता है, मनुष्यों के हृदय की तो बात ही क्या ? ( ३५ ) किं करेन्ति हरिणया के सरिकिसोरयस्स - स० स० भ० पृ० ६५६ । सिंह शावक का हरिण क्या बिगाड़ सकते हैं । ( ३६ ) सुगेज्झाणि सज्जणहिययाणि- -- स० स० भ० पृ० ६५६ । सज्जन हृदय सुग्राह्य होते हैं । (३७) विवेगउच्छाहमूलो य पुरिसयारो -- स० स० भ० पृ० ६७५ । विवेकपूर्वक उत्साह ही पुरुषार्थ है । (३८) सुहाहिलासिणा खु थे वो वि वज्जियध्वो पमाश्रो- स० स० भ० पृ० ७२२ । सुखाभिलाषी को थोड़ा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । ( ३६ ) अप्पमात्र हि नाम, एगन्तियं कम्मवाहिश्रसहं - स० स० भ० पृ० ७२२ । कर्मबन्धन को नष्ट करने के लिए श्रप्रमाद ही एकान्तिक रूप से कारण है । (४०) दानसीलतवभावणामश्रो य विसिट्ठधम्मो -- स० न० भ० पृ० ४३ । दान, शील, तप और सद्भावना रूप धर्म होता है । सूक्ति वाक्यों का महत्त्व सूक्ति वाक्यों के प्रयोग से भाषा में लालित्य, प्रोज और प्रवाह आता है । इनसे भाषा अनुप्राणित होती हैं और सहज में हृदय में स्थान पा जाती है । रचना में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए सूक्ति वाक्य प्रत्यावश्यक हैं । भाषाशैली को मधुर, सरल और चटीली बनाना सूक्ति वाक्य या मुहावरों का ही कार्य है । सूक्ति वाक्य जनता की बोलचाल की भाषा से आते हैं और ये भाषा के जीवन्त रूप की सूचना देते हैं । किसी भी भाषा में उसकी लोकप्रियता के कारण ही सूक्ति वाक्यों का श्रीगणेश होता है । ये जनसाधारण की संपत्ति होते हैं । साहित्यकार या लेखक अपनी शैली को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए ही उक्त प्रकार के वाक्यों का प्रयोग करता है । अनूठी उक्तियां हृदय पर सीधा प्रभाव डालती हैं, जिससे तथ्य को हृदयंगम करने में पाठक को अत्यन्त सुविधा प्राप्त होती हैं । घटनाक्रम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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