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________________ २९२ हरिभद्र ने समराइच्चकहा में लोक व्यवहृत रूढ़ियों, मुहावरों और सूक्तियों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। लोकोक्तियां और मुहावरे वस्तुतः लाक्षणिक प्रयोग है। पाठक के कान उनसे परिचित रहते हैं अतः उनके द्वारा अर्थबोध में पूरी सहायता मिलती है। जो बात साधारण रीति से सीधी भाषा में कही जाने पर नीरस और रूखी जान पड़ती है, वही मुहावरेदार भाषा में चमक उठती है। सूक्तियां और मुहावरे भाषा पर शान चढ़ा देते हैं और भाषा में एक नया जीवन उत्पन्न कर देते हैं पर इसका अर्थ यह नहीं है कि बलपूर्वक सूक्ति और मुहावरों की भरमार को जाय । इनका प्रयोग स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। हरिभद्र द्वारा प्रयुक्त कुछ सूक्तियां उद्धृत की जाती हैं - (१) न य मियंकबिम्बानो अंगारबुट्ठीग्रो पडन्ति-स० प्र० भ० पृ० २०-- चन्द्रमा से अंगारों की वर्षा नहीं होती है। (२) सयलदुक्खतरुबीयभूया अमेत्ती-स० प्र० भ० पृ० ३३ शत्रुता समस्त दुःखों का बीज है। (३) न कुणइ पणईण पियं जो पुरिसो विप्पियं च सत्तूणं, कि तस्स जणणिजोवण विउडणमेत्तण जम्मेणं-स० प्र० भ० पृ० ३४ । जो हित षियों का प्रिय और शत्रुओं का अनिष्ट करने में समर्थ नहीं है, उसका जन्म लेकर अपनी माता के यौवन को विकृत करना निरर्थक (४) विचित्र सन्धिणो हि पुरिसा हवन्ति-स० प्र० भ० पृ० ३६। मनुष्य का स्वभाव विचित्र होता है, निमित्त मिलने से कभी भी परिवर्तित हो सकता है। (५) नथि अविसओ कसायाणं--स० प्र० भ० पृ० ३६। कषाय के विषयों को कहीं भी कमी नहीं है ।। (६) सयलपरिवबीयभूमो एइयत्तो वि संगो-स० प्र० भ० पृ० ३८। थोड़ा परिग्रह भी समस्त परिभव--संसार बन्धन का कारण है। (७) न मन्दपुण्णाणं गेहेसु वसुहारा पडन्ति--स०प्र० भ० पृ० ३८ पुण्यहीनों के घर में धन की वर्षा नहीं होती। (८) कि मलकलंकमुक्कं कणयं भुवि सामलं होइ--स० प्र० भ० पृ० ६० । क्या शुद्ध सोना पृथ्वी में रहने से काला हो सकता है ? (९) सासयसुहकप्पायवेक्कबीयं सम्मत्तं--स० प्र० भ० पृ० ५६ । सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति के लिए बीज है। (१०) न कमलायरं वज्जिय लच्छी अन्नत्य अहिरमई--स० वि० भ० पृ० ८६ । लक्ष्मी कमलाकर को छोड़कर अन्यत्र रमण नहीं कर सकती है। (११) कुसुमसारं जोव्वणं--स० त० भ० पृ० २१४। युवावस्था इत्र के समान (१२) तिवग्गसाहणमूलं प्रत्थजायं--स० च० भ० पृ. २४०। धन ही त्रिवर्ग साधन का मूल है। (१३) इत्थिया हि नाम निवासो दोसाणं--स० च० भ० पृ० २५३ । वासनायुक्त स्त्री समस्त दोषों की खान है। (१४) किलेसायासबहुलो गिहवासो-स० च० भ० पृ० २५५ । घर में प्रासक्त रहना बहुत कष्ट का कारण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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