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________________ २६० . पर समराइच्चकहा में "मेइणितिलयभूयं" (स० द्वि० भ० पृ० ७५), "रवितुरयखुरागर छिन्नघणपत्तं" (स० द्वि० भ० पृ० १३६), "पढमाभिभासी" (स० त० भ० पृ० १६२), "दारपरिग्गहो हि नाम निरोसहो वाही" (स० च० भ० पृ० ३४२) एवं "असंजायपक्खो विय गरुडपोयो" (स० ष० भ० पृ० ५००) प्रभृति अनेक व्यंग्यस्थल उपलब्ध है। उक्त वाक्यों या सन्दर्भो का अर्थ व्यंजना शक्ति के बिना ग्रहण नहीं किया जा सकता है। यहां “मेइणितिलयभूय" पद से जयपुर नगर को श्रेष्ठता और सुन्दरता व्यंजित होती है। मेदनीतिलक शब्द लक्षणा शक्ति द्वारा श्रेष्ठता की सचना तो दे सकर सुन्दरता की सूचना देने की शक्ति नहीं है। व्यंजना शक्ति के आने पर ही नगर की मनोरमता और सुन्दरता व्यक्त होती है। "तुरयखुरग्गछिन्नघणपत्तं" से वट वृक्ष की ऊंचाई और सघनता अभिव्यंजित होती है । वह वट वृक्ष इतना उन्नत और विशाल था, जिससे सूर्य के रथ में जोते गये घोड़ों द्वारा उसके घने पत्ते छिन्न-भिन्न होते थे। वट वृक्ष की विशालता की अभिव्यंजना इस वाक्य द्वारा बहुत सुन्दर हो रही है। ___ "पढमाभिभासी" पद से निरहंकारी और प्रेमिल स्वभाव होने की सूचना मिलती है। इस पद में अहंभाव की पराकाष्ठा के प्रभाव को व्यंजित करने की पूर्ण क्षमता है । जो विनीत और सभ्य होगा, वही प्रथम वार्तालाप कर वाला हो सकता है । अहंकारी व्यक्ति प्रथम स्वयं वार्तालाप नहीं कर सकता है, जब कोई बातचीत करना शुरू करता है तभी वह अपना वार्तालाप प्रारम्भ करता है। अतः पढमाभिभाषी से वंभव होने पर भी नम्न होने की व्यंजना प्रकट होती है। "दारपरिग्गहो" पद में विवाह को निरौषधि व्याधि कहना व्यंजना द्वारा संसार बन्धन का कारण बतलाना है। यह सत्य है कि विवाह के कारण पुरजन-परिजन के प्रा ममता जाग्रत होती है और यही ममता बन्धन का कारण है। विवाहित व्यक्ति ही गहस्थी चलाने के लिए प्रारम्भ, परिग्रह का संचय करता है। अतः संसार-त्याग करने में वह प्रबल निमित्त के मिलने पर भी समर्थ नहीं हो पाता है। प्राचार्य हरिभद्र ने उक्त सन्दर्भ में विवाह को निरौषधि व्याधि कहकर उसे संसारबन्धन का प्रबल कारण व्यक्त किया है। __ "प्रसंजायपक्खों" सन्दर्भ में असंभव कार्य को सम्पन्न करने की अभिव्यंजना है। चतुर्थभव की कथा म पत्नी ति की हत्या करना चाहती है और चाण्डाल को उसपर दया पाती है। यह भी एक सुन्दर व्यंग्य स्थल है। इसी भव की कथा में “पलियच्छलेण धम्मदूरो " (स० च० भ० पृ० २८६) में श्वेतकेशों द्वारा विरक्त होने की सूचना दी गयी है। यहां धर्मदूत पद श्रमणधर्म के प्रेरक के रूप में प्रयुक्त है। "मरणमइन्दो" (स० च० भ० पृ० २२७) द्वारा मृत्यु की अनिवार्यता अभिव्यंजित की गयी है। इसी प्रकार "न एस कम्मचाण्डालो, किन्तु जाइचाण्डालों" में आचरण की महत्ता अभिव्यंजित है। पद्यों में अलंकार रहने से अनेक स्थानों पर सुन्दर व्यंजनाएं निहित हैं। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने व्यंजक पदों द्वारा अपनी भाषा-शैली को नुकीला बनाया है। पाठक के ऊपर इन पदों का स्थायी और सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है। इसमें सन्देह नहीं कि हरिभद्र की भाषाशैली लाक्षणिक और व्यंजक पदों से परिपूर्ण है। ___ यह सत्य है कि हरिभद्र की शैली में विद्युत् के समान अपनी ओर खींचने की शक्ति विद्यमान है। चिन्तन की गरिमा और वतुल उक्तियों की भरमार शैली में अपूर्व लावण्य उत्पन्न करती । ये जिस प्रसंग या सन्दर्भ को उपस्थित करते है, उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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