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________________ २७९ है । बताया गया है कि एक नाई विद्याबल से अपनी पेटी को आकाश में लटका देता था। उसके इस चमत्कार के सामने सभी लोग नत मस्तक थे। उससे इस विद्या को एक परिव्राजक ने प्राप्त किया। वह परिव्राजक इस विद्या के प्रयोग द्वारा त्रिदंड को आकाश में लटका देता था' । ८ -- रूप परिवर्तन ] रूप परिवर्तन द्वारा लोगों को चमत्कृत करना और अपना अभीष्ट कार्य सिद्ध करना एक प्रसिद्ध कथानक रूढ़ि है । हरिभद्र ने इसका प्रयोग मूलदेव की कथा में किया है । मूलदेव उज्जैनी में जाने पर गुटिका के प्रयोग द्वारा अपना बौना रूप बना लेता है । रूप परिवर्तन की इस रूढ़ि का प्रयोग हरिभद्र ने विशेष उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया है । ९ -- लौकिक कथानक रूढ़ियां प्रेम या यौन व्यापार को सम्पन्न करने के लिए कथाकार लौकिक कथानक रूढ़ियों का प्रयोग करता है । इस श्रेणी की कथानक रूढ़ियां हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में निम्न प्रकार से उपलब्ध होती हैं --- (१) किसी निर्जन स्थान में अथवा वसन्तविहार के समय वन में अचानक किसी रूपवती रमणी का साक्षात्कार । (२) घोड़े का मार्ग भूलकर किसी विचित्र स्थान में पहुंचना । (३) नायिका के अनुकूल न बनने पर नायक द्वारा उसकी हत्या का प्रयास । (४) अभीष्ट सिद्धि के लिए नायिका को नायक के प्रति क्रुद्ध होना । (५) पूर्व स्नेहानुरागवश नायिका की प्राप्ति और विपत्ति । (६) प्रेमाधिक्य के कारण वियोग की स्थिति में आत्महत्या की विफल चेष्टा । (७) अन्य के द्वारा प्रिया का प्रसादन करते देख प्रिया का स्मरण और उसका प्रभाव । (८) सुन्दरी नायिका की प्राप्ति में बाधक धर्म का परिवर्तन | ( ९ ) कल्पपादप या प्रियमेलक वृक्ष । (१०) नायक को धोखा देकर नायिका का अन्य प्रेमी के साथ अवैध सम्बन्ध । (११) स्त्री का प्रेम निवेदन और इच्छा पूर्ण न होने पर षड्यन्त्र । (१) किसी निर्जन स्थान में अथवा वसन्तविहार के समय वन में अचानक किसी रूपवती रमणी का साक्षात्कार । इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग समराइच्चकहा के द्वितीय भव और पंचम भव कथा में विशेष रूप से हुआ है । यों तो यह कथानक रूढ़ि इतनी अधिक लोकप्रिय है कि इसका व्यवहार समग्र भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं। सिंहकुमार और कुसुमावली का वसन्तोत्सव १ - - द०हा०, पृ० २१० । २ -- उपदेशपद गाथा ११, पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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