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________________ २५६ चलूंगी।" सुन्दरी के आग्रह को देखकर नन्द ने उसे अपने साथ ले चलना स्वीकार कर लिया तथा एक बड़ा समुद्री बेड़ा तैयार किया गया। व्यापार का सामान लादकर जहाज को रवाना किया गया। जब समुद्र में जहाज कुछ दूर पहुंचा तो एक भयंकर तूफान पाया, जिससे जहाज छिन्न-भिन्न हो गया। वे दोनों एक काकता के सहारे सदुद्र के किनारे पहुंच गये। वहां नन्द पानी की तलाश में गया और दूर जाने पर एक सिंह ने मार डाला। (२३) जनभाषा तत्त्व-- लोककथाएं जनभाषा में मौखिक रूप से सुनायी जाती रही होंगी। सहजता और स्वाभाविकता इनका प्रमुख गुण है। इनका लिपिबद्ध जो लिखित रूप उपलब्ध होता है, उसका भी अर्थ यही है कि उनकी भाषा जनभाषा होनी चाहिए। अतः लोककथाएं किसी व्यक्तिविशेष द्वारा जनता को बोलो में लिखो जाती हैं। शिष्ट या परिनिष्ठित भाषा के साहित्य की रचनागत सतर्कता यहां भी होती है, पर भाषा का रूप सार्वजनीन और सरल होता है। हरिभद्र ने अपनी कथाओं को जनता को सरल बोली--प्राकृत में लिखा है। भाषा में रोचकता गुण की वृद्धि के लिये गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग किया है। लघु-कथाओं की भाषा लम्बी कथाओं की भाषा की अपेक्षा अधिक सरल है। अतः जनभाषा में लोक चेतना को मूर्तरूप देने का प्रयास हरिभद्र का प्रशंसनीय है। (२४) सरल अभिव्यंजना-- ___ सरल भाषा में भावों और विचारों को भी सरल ढंग से अभिव्यक्त करना लोककथाओं के लिये आवश्यक तत्त्व है। हरिभद्र ने कथाओं की सामाजिक पृष्ठभूमि का निर्माण बड़े ही सरल और सहज रूप में किया है। इसकी अभिव्यंजना भी सीधे और सरल रूप में प्रस्तुत हुई हैं। (२५) जनमानस का प्रतिफलन-- जनता का रहन-सहन, रीति-रिवाज, खानपान और आवार-व्यवहार का सजीव चित्रण हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में पाया जाता है। प्रांचलिक विशेष ाओं का चित्रण भी इन कथाओं में पूर्णरूप से हुआ है। जनता के भाव, विचार और क्रियाओं का प्रतिफलन दिखलाने में हरिभद्र अद्वितीय हैं। बहन, भाई, पिता, पुत्र, मित्र, राजा, अमात्य पुरोहित, प्रश्वपति, अश्वारोही, दंडिक आदि के मनोभावों का कथा के माध्यम से सुन्दर विश्लेषण दिखलाया गया है। (२६) परम्परा को अक्षुण्णता-- यह सत्य है कि लोककथाएं जनता के हृदय का उद्गार है। सर्वसाधारण लोग जो कुछ सोचते हैं और जिस विषय की अनुभूति करते हैं, उसीका प्रकाशन इन कथाओं में पाया जाता है। हरिभद्र ने अपने कथा-साहित्य में लोक परम्पराओं को १--उप० गा० ३०-३४, पृ० ४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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