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________________ २३७ सिंहकुमार विवेकी, कुशल शासक, उपकारी, दयालु और पाप भीरू है । पिता पुरुष दत्त के द्वारा दिये गये राज्य को प्राप्त कर बड़ी चतुराई से शासन करता है । जितने अधीन सामन्त हैं, सबको नीतिपूर्वक अनुकूल बनाकर रखता है । अपने परिवार का भी उसे बहुत ध्यान है । कुसुमावली के गर्भ में अग्निशर्मा के जीव के आने से उसे राजा की प्रांतों के भक्षण का दोहद उत्पन्न होता है इस दोहद की पूर्ति न होने से रानी क्षीण होने लगती है, उसका शरीर पीला पड़ जाता है, अतः सिंहकुमार को उसके प्रति बड़ी दया उत्पन्न होती हैं ! वह अपने मंत्री मतिसागर को बुलवाकर राजमहिषी के दोहद को पूरा करने का आदेश देता है । मंत्री अपनी बुद्धिमानी द्वारा कृत्रिम रूप से उसके दोहद को पूरा करता है । पितृ स्नेह भी सिंहकुमार में अपूर्व है । वह जानता है कि यह बालक दुष्ट होगा और मेरा श्रनिष्ट करेगा । इसपर भी जब माधवी तत्काल उत्पन्न शिशु को राजा से छिपाकर ले जाती हैं, राजा उसे रोककर सारी स्थिति को समझ जाता है और पुत्र को ले लेता है, तथा उसके समुचित भरण-पोषण का प्रबन्ध कर किसी धाई को सुपुर्द कर देता है । मति सागर मंत्री को कष्ट न हो, इसलिए प्रच्छन्नरूप में पुत्रोत्सव भी सम्पन्न करता है । सिंहकुमार अपने उक्त पुत्र प्रानन्दकुमार के युवक होने पर उसे युवराज पद दे देता है और उसके प्रति अपार वात्सल्य रखता है । यद्यपि पूर्व कर्मदोष के कारण श्रानन्द महाराज सिंहकुमार से घृणा करता है और भीतर ही भीतर राज्य प्राप्ति के लिए षड्यंत्र रचता है । सिंहकुमार संवेदनशील भी है । जब वह दुर्मति नामक सामन्तराज पर आक्रमण करता है तो मार्ग में अजगर द्वारा कुरर पक्षी का, कुरर पक्षी द्वारा सांप का और सांप द्वारा मेढक का भक्षण करते हुए देखकर उसकी हत्तन्त्री संकृत हो उठती है और वह मार्ग में से ही लौट आता है । हरिभद्र ने सिंहकुमार के चरित्र के इस मार्मिक विन्दु को उपस्थित कर मानवता का कोमल, हृदयद्रावक और प्रभावशील चित्रण किया हूँ। सिंहकुमार की मोह निद्रा दूर होती हैं और वह प्रवृज्या धारण करने के लिए संकल्प कर लेता है । इस समय का उसका स्वगत चिन्तन बहुत ही मार्मिक है । इसी बीच दुर्मति स्वयं घबड़ाकर सिंहकुमार की शरण में आता है । आनन्दकुमार राज्य-प्राप्ति की प्राकांक्षा से दुर्मति से सन्धि करता है । पिता के द्वारा स्वेच्छया दिया गया राज्य उसे मृत शिकार प्रतीत होता है । अतः वह अभिमानी अपने पुरुषार्थ द्वारा पिता को मारकर राज्य प्राप्त करना चाहता है । फलतः दुर्मति के साथ मिलकर क्रमण करता है । सिंहकुमार की सेना युद्ध करना चाहती हैं, पर वह सेना को अपनी कसम दिलाकर विरत करता है । सिंहकुमार को बन्दी बनाकर बन्दीगृह की दुर्गन्धित कोठरी में रखा जाता है । सिंहकुमार धीर-वीर और अत्यन्त कष्ट सहिष्णु हुँ । बन्दीगृह में पहुंचने पर वह आहार- पानी का त्याग कर संल्लेखना धारण कर लेता है । श्रानन्दकुमार को जब उसके द्वारा भोजन छोड़ने का समाचार प्राप्त होता है तो वह उसे डांटने - डपटने के लिए देवशर्मा ब्राह्मण को भेजता है । देवशर्मा राजा को समझाता है, पुरुषार्थ करने के लिए उत्साहित करता है, पर वह अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहता है । देवशर्मा को विलम्ब होते देखकर साथ तलवार से सिंहकुमार को मार के साथ मरण स्वीकार करता है । Jain Education International स्वयं श्रानन्दकुमार श्राता है और तर्जन गर्जन के डालता है । सिंहकुमार बड़े धैर्य और शांति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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