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________________ २२६ कराया है । इस वार्तालाप ने कथावस्तु को तो मोड़ा ही है, साथ ही नर जाति, जिसका प्रतिनिधित्व सनत्कुमार करता है और नारी जाति, जिसका प्रतिनिधित्व अनंगवती करती है। का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उपस्थित किया है । आज भी समाज में अनंगवतियों की कमी यद ही मिल सकेगा। हरिभद्र सरि संवादतत्व के मर्मज्ञ है, उक्त संवाद मन को कितने परतों का उद्घाटन करता है, यह पठनीय है। अनंगवती--"अस्फुट स्वर में, कुमार मैं तुम्हारी शरणागता हूं, रक्षा करो।" कुमार--"मां ! किस बात का भय है ?" अनंगवती कटाक्ष करते हुए--"कामदेव से। जबसे मैने भवन से उद्यान की ओर जाते हुए देखा था, उस समय से पांचबाणवाला कामदेव दस कोटि बाण सहित प्रविष्ट हो गया है । अतः मैने अपना हृदय उसी समय से समर्पित कर दिया है । ण से विद्ध मेरे हदय को श्राप ही निःशस्त्र बना सकते हैं। संसार में वे ही सत्पुरुष है, जो दूसरों की प्रार्थना स्वीकार करते हैं। जो दीनों का उद्धार, अन्य व्यक्तियों के मनोरथों की पूत्ति और शरणागत की रक्षा करने में संलग्न हैं, वे ही संसार में उत्कृष्ट व्यक्ति हैं। अतः आप कामदेव से मेरी रक्षा कीजिये ।" ___ उक्त प्रस्ताव से मर्माहत होकर राजकुमार ने कहा-"मां ! उभयलोक विरुद्ध असभ्य आचरण करने वाले इस नीच संकल्प को छोड़िये । अपने कुल की पवित्रता का विचार कीजिये । महाराज के उत्कृष्ट गुणों की अपेक्षा कीजिये । आपका यह अनर्गल प्रस्ताव नरक गति का कारण है। कामदेव मानसिक संकल्पों के त्याग के बिना वश में नहीं हो सकता है। चरण वन्दना के अतिरिक्त अन्य प्रकार से तम्हारे शरीर का उपयोग मुझसे नहीं होगा। वे पुरुष भी शक्तिशाली हैं, जो धर्म नहीं छोड़ते, शीलखण्डित नहीं करते, आचरण का उल्लंघन नहीं करते, निन्दित कर्म नहीं करते और अनुचित कार्यों में मोह उत्पन्न नहीं करते । अनंग का परिरक्षण भी विवेक से ही संभव है । मैं तुम्हारा प्रिय हूं, तो क्षणिक सुख को बहुत मानकर मुझे धधकते ज्वालमालाकुलित भीषण नरक में क्यों गिराती हैं ?" __लज्जा से अवनत अनंगवती--"साधु कुमार साधु, तुम्हारा यह विवेक उचित है । मैने तो हंसी में ऐसा कहा था, "परमार्थतः नहीं।" __कुमार के जाने के पश्चात् महारानी अनंगवती ने अपना रौद्र वेष बनाया, कृत्रिम नख-क्षत और दन्तक्षत के चिह्न बनाये तथा महाराज के प्राने पर कुमार के द्वारा दुराचार सम्पन्न करने की असफल चेष्टा का दिग्दर्शन किया। इस प्रकार संवादों द्वारा हरिभद्र ने वीर, श्रृंगार और शांत इन तीनों रसों की बड़ी सुन्दर अभिव्यंजना की है । इनमें अनेकरूपता, भाषा एवं शैलियों को भिन्नता, उनका संगठन आदि महत्वपूर्ण है। छोटे-छोटे कथोपकथनों में नाटकीयता का समावेश हुआ है । प्रवाह इतना अधिक है कि पाठक की कुतूहलवृत्ति निरन्तर जाग्रत रहती है। कथा की गति में बाधा देने वाला एक भी वार्तालाप नहीं है । युवक-युवतियों के प्रेम के प्रारम्भ को चित्रोपमता दी गयी है और प्रत्येक बात को इतनो स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे सिद्धांतों की अभिव्यंजना भी होती गयी है। ___मनुष्यों के वार्तालापों के अतिरिक्त पशु-पक्षियों के वार्तालाप भी हरिभद्र ने अंकित किये हैं। शुक और रति वेग का संवाद, चण्डकौशिक और महावीर का सम्बोधन सवाद, शृंगाल और सिंह-व्याघ्र प्रादि के संवाद उल्लेख्य है। निम्नांकित उदाहरण से पशुओं के वार्तालाप को हरिभद्र ने कितने स्वाभाविक रूप से उपस्थित किया है, यह अवगत किया जा सकेगा। शृंगाल को सामने बेखकर सिंह बोला--"भानजे ! यहां कहां हो?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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