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________________ २०७ (५) सरल काय व्यापार के साथ जटिल कार्य व्यापार का संयोग। (६) कार्य व्यापार की एकता । (७) कथानक का जीवन की गूढ़ समस्याओं से संबंध । (८) प्रवाहशीलता और लक्ष्य की ओर द्रुततर गति । (९) कौतहल का सृजन ।। (१०) निर्दिष्ट सीमा के भीतर स्पष्ट और पूर्ण रूप से चरित्रों का उत्कर्ष । (११) प्रेम, सौन्दर्य और करुणा का सृजन । (१२) जीवन की विविध समस्याओं की उपस्थिति और उनके समाधान । (१३) कथानक के विविध अंगों में तारतम्यता । (१४) घटनाओं की एक सूत्रीय योजना। (१५) सरल और समगति से वस्तु का विकास । (१६) चमत्कारपूर्ण योजना। (१७) मूल भाव और प्रेरकता के अनुरूप ही वस्तु का सम्प्रसारण । (१८) विस्तार-परिमिति और लक्ष्य को ऐकान्तिकता।। (१९) चित्त द्रवीभूत करने के लिये प्रभावोत्पादकता का सृजन । (२०) कथानक द्वारा अभीप्सित वातावरण को मूत्तिमान स्वरूप खड़ा करना। (२१) दुहरे कथानकों की योजना--एक कथानक के भीतर उसी से सम्बद्ध दूसरे कथानक को खड़ा करना। (२२) कथानक में अवस्थाओं--आरम्भ, विकास, कौतूहल और परिणाम का यथोचित सन्निवेश।। (२३) कारण-कार्य, परिणाम की अपनी एक योजना । (२४) पुनर्जन्मवाद के आवश्यक तत्त्व कर्म सिद्धान्त का योग । (२५) घटनाओं के मूल में निदान का संकेत । (२६) उदात्त चरित्र के सृजनार्थ धर्मोपदेश का सन्निवेश । (२७) चेतन के साथ जड़ कर्म के संयोग का वैविध्य प्रदर्शन । (२८) पाठकों की संभावना के विपरीत आकस्मिक घटनाओं को अवतारणा। (२९) शाश्वत् मनोभावों की अभिव्यंजना। हरिभद्र के समस्त कथानकों का आंकड़ा उपस्थित करना तो संभव नहीं है, पर एकाध कथानक का उल्लेख कर देना आवश्यक है । प्रथम भव में बताया है कि क्षितिप्रतिष्ठित नगर में पूर्णचन्द्र नाम का राजा रहता था। इसकी कुमुदिनी नाम की पट्टरानी थी। इस दम्पति को गुणसेन नाम का गुणी पुत्र उत्पन्न हुआ। इसी नगर में धर्मशास्त्र का ज्ञाता, गुणवान, नीतिज्ञ और अल्पारंभपरिग्रही यज्ञदत्त नाम का पुरोहित था। इसकी पत्नी का नाम सोमदत्ता था। इनको अग्निशर्मा नाम का एक अत्यन्त कुरूप पुत्र उत्पन्न हुआ। अग्निशर्मा की कुरूपता लोगों के परिहास का विषय थी। कुमार गुणसेन अपने साथियों के साथ उसे गधे पर सवार कराकर और उसके सिर के ऊपर सूप का छत्र लगाकर गाजे-बाजे के साथ नगर में घुमाकर आनन्द प्राप्त करता था। इस प्रकार का व्यवहार प्रतिदिन करने से अग्निशर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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