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________________ १९९ महापदुम जातक में बताया गया है कि एक बार बोधिसत्व ने वाराणसी में पद्मकुमार के रूप में जन्म ग्रहण किया । वयस्क होने पर राजा ब्रह्मदत्त ने उसे युवराज बना दिया । राजा अपने प्रदेश के किसी विद्रोह को शांत करने गया और राज्य का भार पद्मकुमार पर छोड़ दिया । पद्मकुमार के रूप सौन्दर्य पर आसक्त होकर उसकी विमाता ने उसके समक्ष रमण करने का अनुचित प्रस्ताव रखा । इसपर कुमार ने उत्तर दिया--" श्रम्म ! तू मेरी माता है और स्वामीवाली है । मैंने परिगृहीत स्त्री की ओर कभी इन्द्रियों को चंचल करके देखा तक नहीं है । मैं तेरे साथ ऐसा निकृष्ट कार्य कैसे करूँगा ।" इस उत्तर को सुनकर पटरानी ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, किंतु राजा के वापस लौट आने पर कपटाचरण द्वारा अपना उग्र रूप प्रकट किया। उसने कुमार के ऊपर बलात्कार का दोषारोपण कर राजा से उसका सिर कटवा देने का प्रयास किया । यह कथानक सनत्कुमार के प्रति किये गये अनंगवती के प्रेम प्रस्ताव का स्रोत हो सकता है । श्रनंगवती का श्राचरण और व्यवहार ठीक पद्मकुमार की विमाता के समान है । दोनों कुमारों का उत्तर दोनों ही स्थानों पर समान है । अत: तुलना से यह स्पष्ट अवगत होता है कि हरिभद्र के उक्त कथानक का स्रोत यह जातक कथा हो सकती है । जातक कथाओं के पात्र और नगरों के नाम भी हरिभद्र की कथात्रों में कुछ ज्यों-के-त्यों रूप में मिलते हैं । अतएव यह मानना ही पड़ेगा कि प्राकृत कथाओं के साथ हरिभद्र ने पालि जातक कथाओं का भी अध्ययन किया था । गुणाढ्य की वृहत्कथा आज उपलब्ध नहीं है । इसका एक रूपान्तर जिसे संस्कृत भाषा में सोमदेव ने ग्यारहवीं शती में लिखा है, उपलब्ध हैं । यह सत्य है कि कथासरित्सागर की कथाएं सोमदेव की अपनी नहीं हैं, किन्तु गुणाढ्य की पैशाची भाषा में निबद्ध बृहत्कथा के आधार पर ही ये कथाएं लिखी गयी प्रतीत होती हैं । कथा - सरित्सागर के प्रथम लम्बक में उपकोशा की कथा आयी है । उपकोशा ने अपनी चतुराई से वणिक्पुत्र से अपने पति द्वारा जमा किया गया धन प्राप्त किया था । इसमें कुमार सचिव, कोतवाल और राजपुरोहित इन तीनों को इनकी रसिकता के कारण सन्दूक में बन्द कर दिया था । हरिभद्र की समराइच्चकहा में गुणाढ्य की वृहत्कथा में वर्णित उपर्युक्त आशयवाली कथा के स्रोत को लेकर ही नवम भव की अवान्तर कथाओं में शुभंकर और रति की कथा लिखी गयी हैं। यों तो उक्त प्रकार की लोककथाएं आज भी प्रचलित हैं । ब्रजभाषा लोकसाहित्य में उक्त आशय की एकाध कथा और भी मिलती हैं । १ -- जातक कथा भाग ४, पृ० ३८६--३६१ । २ -- सन० पृ० ३८४-३६० । ३ - वि० राष्ट्रभाषा द्वारा प्र० क० स० प्र० खं०, पृ० ४१ । ४.... सम० पृ० ६०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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