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________________ अतएव स्पष्ट है कि समराइच्चकहा का कथानक की दृष्टि से वसुदेवहिंडी को स्रोत जानना न्यायसंगत और उपयुक्त है । समराइच्चकहा में उवासगदसा से भी कई सन्दर्भ ग्रहण किये गये हैं। श्रावक के प्रतों का विवेचन, अतिचारों का निरूपण और खरकर्मों का कथन मूलतः उवासगदसा से ही लिया गया प्रतीत होता है । उवासगदसाओं के प्रथम आनन्द अध्ययन में श्रावक के बारह व्रतों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । समता के लिए यहां कुछ उद्धरण उपस्थित किये जाते हैं: "तहा इंगालकम्मं वा, वणकम्मं वा, सागडिकम्म वा, भाडियकम्भं वा, फोडियकम्मं वा, दन्तवाणिज्ज वा, लक्खवाणिज्जं वा, के सवाणिज्जं वा, रसवाणिज्जं वा, विसवाणिज्जं वा, जन्तपीलणकम्मं वा, निल्लछणकम्मं वा, दवग्गिदावणयं वा, असइपोसणं वा, सर-दहतलायसोसणयं वा, तहा कन्दप्पं वा, फक्कुइयं वा, मोहरियं वा, संजुताहिगरणं वा, उवभोगपरिभोगाइरगं वा, तहा मणदुप्पण्हिाणं वा, वयदुप्पणिहाणं वा, कायदुप्पणिहाणं, सामाइयस्स सइअकरण वा----------वा।" उवासगदसाओं में यही प्रकरण-- तं जहा इंगाल कम्म, वणकम्म, साडी-कम्म, भाडी-कम्म, फोडी-कम्म, दंत-वाणिज्ज, लक्खा-वाणिज्ज, रसवाणिज्ज, विस-वाणिज्ज, केस-वाणिज्जे, जंतपीलणकम्म, निल्लछणकम्म, दवग्गि-दावणया, सर-दह-तलाब-सोसणया, असई-जण-पोसणया------------ तं जल प्राणवण-प्पयोग, पेसवणप्पलोग, सद्दाणुवाए, रुवाणुवाए बहिया पोग्गल-पवखे । तुलनात्मक दृष्टि से दोनों संदर्भो का अवलोकन करने से स्पष्ट है कि हरिभद्र ने द्वादश व्रत और अतिचारों के वर्णन के लिए उवासगदसाओं से सहायता प्राप्त की है। यदि यह कहा जाय कि यह प्रसंग हरिभद्र ने उवासगदसानों से ग्रहण किया तो कोई अत्युक्ति न होगी। यह संदर्भ भाव, भाषा, शैली और विचार इन सभी दृष्टियों से उवासगदसानों के समान है । जो क्रम उवासगदला का है, वही क्रम इस संदर्भ का हरिभद्र ने भी रखा हैं । शब्दों में भी जहां-तहां बहुत थोड़ा अन्तर है । विपाकसूत्र और उत्तराध्ययन से भी समराइच्चकहा के कुछ सन्दर्भ प्रभावित प्रतीत होते हैं। विपाकसूत्र में वणित विजय मित्र सार्थवाह की जलयात्रा समराइच्चकहा के धनसार्थवाह की जलयात्रा से समता रखती हैं । विजयमित्र सार्थवाह ने गणिम, धरिम, म य और परिच्छेद, इन चार प्रकार की पण्यवस्तुओं को लेकर लवण-समुद्र में प्रस्थान किया था, किन्तु तूफान के कारण उसका यान समुद्र में छिन्न-भिन्न हो गया। २-सम० पृ० ६३-६४ । २- गोरे द्वारा संपादित उवामगदसायो, पृ० ८ । २-- ततो णं से विजयमित्ते सत्यवादे अन्नया कयाइ गणिमं च धरिमं च मज्जं च--- उवागते विपाक सूत्र द्वि० अ०, पृ० १६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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